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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 कोई हमारे भीतर प्रवेश नहीं करता। अब हम अपने में पूरे हैं। लेकिन, हम तो आश्रव में ही जीते हैं। हम पूरे वक्त बाहर से हमें कुछ चाहिए। उत्तेजना चाहिए पूरे वक्त बाहर से। ऐसा जैसे बाहर के सहारे ही हम जीते हैं भीतर भी। एक आदमी आ जाता है और आपसे कह देता है, बड़े सुंदर हैं। चित्त प्रफुल्लित हो जाता है, फूल खिल जाते हैं, पक्षी उड़ने लगते हैं भीतर। इसका रास्ता आप देख रहे थे कि कोई आकर कहे कि बड़े सुंदर हैं। लोगों की आंखों में आप खोजते रहते हैं कि-लोग आपको सुंदर कह रहे हैं कि नहीं। अगर कोई आपकी तरफ ध्यान नहीं देता है, चित्त बड़ा उदास हो जाता है। मैं एक यूनिवर्सिटी में था। वहां कुछ लड़कियां मुझे आकर शिकायत करती हैं कि किसी ने कंकड़ मार दिया, किसी ने धक्का मार दिया। मैंने उनसे कहा, मारने भी दो! अगर कोई धक्का न मारे और कोई कंकड़ न मारे, तो भी मुसीबत! तो भी चित्त उदास होत जिस लड़की को कोई कंकड़ नहीं मारता यूनिवर्सिटी में, उसका कष्ट आपको पता है? वह कष्ट, जिसको कंकड़ मारे जाते हैं उससे बहुत ज्यादा है। सच तो यह है कि जो लड़की आकर मुझसे शिकायत की है कि फलां लड़के ने कंकड़ मारा, इसने कंकड़ मारा, उस प्रोफेसर तक ने मुझे धक्का दे दिया, वह असल में इसके कहने में रस भी ले रही है। उस रस का उसे पता नहीं है। भीतर उसे मजा भी आ रहा है। __इसलिए जब कोई आकर बताता है कि रास्ते में भीड़ बड़ी धक्का मारने लगी, तो उसकी आंखों में देखना, एक भीड़ धक्का न मारती, कोई देखता ही नहीं कि आप थे भी, कि आप थीं भी। तो उदासी चित्त को पकड़ लेती है। कोई ध्यान नहीं दे रहा है। हम पूरे समय बाहर से जी रहे हैं, बाहर कौन क्या कर रहा है। यह हमारा आश्रव चित्त है। इसमें हम सिर्फ बाहर के सहारे ही हमारा अस्तित्व है। सब सहारे खींच लो तो हम ऐसे गिर पड़ेंगे जैसे कि खेत में खड़ा हुआ झूठा पुतला गिर जाये। उसकी सब चीजें अलग कर लो। नास्तिक यही कहता है कि तुम्हारे भीतर कुछ है ही नहीं। जो बाहर से आया है, वही है। तुम भीतर कुछ भी नहीं हो, बाहर के जोड़ हो। चार्वाक ने यही कहा है, यही उसका निवेदन है कि तुम बाहर ही के जोड़ हो। तुम्हारे शरीर में जो खून दौड़ रहा है वह बाहर से आया है। तुम्हारा जो अणु, तुम्हारा जो सेल बन गया है वह बाहर से आया है, तुम्हारी हड्डी, मांस, मज्जा सब बाहर से आयी है। तुम जो भी वह सब बाहर से आया हुआ है। भीतर तुम कुछ भी नहीं हो, भीतर होने जैसी कोई बात ही नहीं है। देअर इज नो इनरनैस, सब कुछ बाहर से आया हुआ। भीतर झूठा शब्द है। इसलिए चार्वाक कहता है, बाहर की सब चीजें अलग कर लो, तो भीतर कुछ नहीं बचता। हालत वैसी हो जाती है, जैसे प्याज के छिलके निकालते जाओ, आखिर में कुछ भी हाथ नहीं आता। प्याज हाथ में नहीं आती। प्याज छिलकों का जोड़ थी। __चार्वाक कहता है-तुम भी सिर्फ एक जोड़ हो बाहर के, सब हटा लो और तुम खो जाओगे, तुम्हारी आत्मा वगैरह कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक जोड़ है, एक कंपाउंड।। महावीर इसके ही विपरीत हैं। वे कहते हैं, तुम भीतर भी कुछ हो, तुम्हारा भीतरी होना भी तत्व है। लेकिन इस भीतरी तत्व को तुम जानोगे कैसे? तुम तभी जान पाओगे जब तुम बाहर से सब लेना बंद कर दो। शरीर तो बाहर से लेगा ही। इसलिए महावीर कहते हैं, शरीर का कोई भीतरीपन नहीं है। शरीर का सब कुछ बाहरी है। मन भी बाहर से ही लेता है, इसलिए मन का भी कोई भीतरीपन नहीं है। इसलिए महावीर कहते हैं, शरीर से ऊपर उठो, चेतना को हटा लो शरीर से परा। मन को जो-जो बाहर से मिलता है--विचार, 478 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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