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महावीर वाणी
भाग : 1
मेरा धर्म, मेरा मंदिर, मेरा शास्त्र - जहां भी मेरा जुड़े उसे तोड़ते जाना है। फिर मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी आत्मा, जहां भी मेरा जुड़े, उसे तोड़ते चले जाना है। अगर यह मेरा टूट जाये, सब जगह से और एक दिन आपको लगे कि मेरा कुछ भी नहीं, मैं भी मेरा नहीं, उस दिन छलांग हो जायेगी।
लेकिन रास्ता अपना-अपना चुन लेना पड़ता है। क्या आपको प्रीतिकर लगेगा। प्रतिपल तोड़ते जाना प्रीतिकर लगेगा, या प्रतिपल शुद्ध करते जाना प्रीतिकर लगेगा । श्रेष्ठतर मेरा बनाना उचित लगेगा कि मेरे को जड़ से ही तोड़ देना ही उचित लगेगा।
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इसकी जांच भी अत्यंत कठिन है। इसलिए साधना में गुरु का इतना मूल्य हो गया। उसकी जांच अति कठिन है कि आपके लिए क्या ठीक होगा। अकसर तो यह होता है कि जो आपके लिए गलत होगा, वह आपको ठीक लगेगा। यह कठिनाई है। जो गलत होगा आपके लिए वह आपको तत्काल ठीक लगेगा, क्योंकि आप गलत हैं। गलत आपको आकर्षित करेगा तत्काल । जो आपको आकर्षित करे, जरूरी मत समझ लेना कि आपके लिए ठीक है। होशपूर्वक प्रयोग करना पड़े - होशपूर्वक जो आप कहते हैं कि यह मेरे लिए ठीक है, सौ में निन्यानबे मौके तो यह हैं कि वह आपके लिए गलत होगा। क्योंकि आप गलत हैं और आपके आकर्षण अभी गलत होंगे इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी, ताकि शिष्य अपनी आत्महत्या न कर ले। शिष्य आत्महत्याएं करते हैं। और कई बार तो बहुत मजा होता है, शिष्य गुरु को भी जाकर बताते हैं कि मेरे लिए क्या उचित है । आप ऐसा करवाइए, यह मेरे लिये उचित है।
वे 'खुद ही अनुचित हैं, वे जो भी चुनेंगे वह अनुचित होगा । उचित नहीं हो सकता। और जो उचित है, वह उन्हें विपरीत मालूम पड़ेगा कि यह तो विपरीत है, यह मुझसे न हो सकेगा। इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी कि वह सोच सके, निदान कर सके, खोज सके कि क्या ठीक होगा; निष्पक्ष दूर खड़े होकर पहचान सके कि क्या ठीक होगा।
आप खुद ही उलझे हुए हैं, आप पहचान न सकेंगे। आप खुद ही बीमार हैं, अपनी बीमारी का निदान करना जरा मुश्किल हो जाता है। क्योंकि मन बीमारी की वजह से बेचैन होता है। मन जल्दी ठीक होने के लिए अधैर्य से भरा होता है। मन किसी भी तरह बीमारी इसी वक्त समाप्त हो जाये, इसमें ज्यादा उत्सुक होता है। बीमारी क्या है, इसकी शांति से परीक्षा की जाये, इसमें उत्सुक नहीं होता। इसलिए बीमार अपना निदान नहीं कर पाता है।
लेकिन, बिना गुरु के भी चला जा सकता है। तब एक ही रास्ता है, 'ट्रायल ऐण्ड एरर' । एक ही रास्ता है कि भूल करें। और सुधार करें, प्रयोग करे। और जो आपको ठीक लगे उस पर प्रयोग करें। एक वर्ष तय कर लें कि इस पर प्रयोग करता ही रहूंगा फिर इसके परिणाम देखें, वे दुखद हैं, अप्रीतिकर हैं, अहंकार को घना करते हैं । दूसरा प्रयोग करें, छोड़ दें।
एक उपाय है भूल-चूक, अनुभव। दूसरा उपाय है, जो भूल-चूक से गुजरा हो, अनुभव तक पहुंचा हो, उससे पूछ लें। दोनों की सुविधाएं हैं, दोनों के खतरे हैं।
अब सूत्र ।
'सदा अप्रमादी, सावधान रहते हुए, असत्य को त्याग कर हितकारी सत्य वचन ही बोलने चाहिए। इस प्रकार का सत्य बोलना सदा बड़ा कठिन है।
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बड़ी शर्तें महावीर ने सत्य में लगायी हैं। सत्य बोलना चाहिए, इतना महावीर कह सकते थे। इतना नहीं कहा। महावीर पर्त-पर्त चीजों को उघाड़ने में अति कुशल हैं। इतना काफी था कि सत्य वचन बोलना चाहिए। इससे ज्यादा और क्या जोड़ने की जरूरत है ? लेकिन महावीर आदमी को भलीभांति जानते हैं, और आदमी इतना उपद्रवी है कि सत्य बोलना चाहिए, इसका दुरुपयोग कर
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