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सत्य सदा सार्वभौम है
अशुद्ध हो गया। ___ मुझसे बड़ा साधु कोई नहीं, इसमें अगर साधुता पर जोर हो और होश रखा जाये, तो अहंकार शुद्ध होगा। इसमें 'मुझसे बड़ा' इस पर जोर रखा जाये, तो...तो अहंकार अशुद्ध होगा। मुझसे बड़ा साधु कोई नहीं, इस भाव में साधुता ही महत्वपूर्ण हो, और मुझे यह भी पता चलता रहे कि जब तक मुझे यह लग रहा है कि मुझसे बड़ा कोई नहीं, तब तक मेरी साधुता में थोड़ी कमजोरी है। क्योंकि साध को यह भी पता चलना कि मैं बड़ा हं. असाध का लक्षण है। ___ कोई मुझसे छोटा है, तो यह हिंसा है। इसको धीरे-धीरे छोड़ते जाना है। एक दिन साधु ही रह जाये, मुझसे बड़ा, मुझसे छोटा कोई भी न रह जाये। मैं साधु हूं, इतना ही भाव रह जाये तो अहंकार और शुद्ध हुआ। __ लेकिन अभी मैं साधु हूं, तो असाधु से मेरा फासला बना हुआ है। अभी असाधु के प्रति मैं सदय नहीं हूं। अभी असाधु मुझे
अस्वीकार है। अभी कहीं गहरे में असाधु के प्रति निंदा है, कंडेमनेशन है। इसे भी चला जाना चाहिए, नहीं तो मैं साधु पूरा नहीं हूं। __ तो जिस दिन मुझे यह भी पता न चले कि मैं साधु हूं कि असाधु हूं, इतना ही रह जाये कि 'मैं हूं,' साधु असाधु का फासला गिर जाये, तो अहंकार और भी शुद्ध हुआ। ___ लेकिन, मैं हूं, इसमें भी अभी दो बातें रह गयीं—'मैं' और 'होना'। यह मैं भी बाधा है, यह भी वजन है। यह होने को जमीन से बांध रखता है। अभी पंख पूरे नहीं खुल सकते, अभी उड़ नहीं सकते, अभी आकाश में पूरा नहीं उड़ा जा सकता।
इस मैं को भी आहिस्ता-आहिस्ता विलीन कर देना है, और इतना ही रह जाये कि हं, होना मात्र रह जाये, जस्ट बीइंग, इतना भर खयाल रह जाये कि 'हं', तो यह अहंकार की शुद्धतम अवस्था है। लेकिन यह भी अहंकार की अवस्था है। जब यह भी खो जाता है कि हूं या नहीं। जब मात्र अस्तित्व रह जाता है, तब अहंकार से हम आत्मा में छलांग लगा गये।
यह शुद्ध करने की बात हुई। लेकिन शुद्ध करने में भी छोड़ते तो जाना ही होगा। और एक होश सदा रखना होगा कि जो भी मेरा भाव है, उस भाव में आधा हिस्सा गलत होगा, आधा हिस्सा सही होगा। तो पचास प्रतिशत जो गलत है, वह मैं पचास प्रतिशत सही के लिए कुर्बान करता रहं, और करता चला जाऊं, जब तक कि एक ही न बच जाये। लेकिन एक जब बचता है, तब भी अहंकार की आखिरी रेखा बच गयी; क्योंकि एक का भी दो से फासला तो होता है। जब एक भी न बचे, जब अद्वैत भी न बचे, जब अद्वैत भी खो जाये, जब हम ऐसे हो जायें, जैसे फूल हैं, जैसे पत्थर हैं, जैसे आकाश है, हैं लेकिन इसका भी कोई पता नहीं कि 'है', जब इतनी सरलता हो जाये भीतर कि दूसरे का सारा बोध खो जाये, तब छलांग आत्मा में लगी।
यह तो शुद्ध करने का उपाय है, लेकिन खतरे हैं। क्योंकि जोर अगर हमने गलत पर दिया तो शुद्ध होने की बजाय अशुद्ध होता चला जायेगा। और जब अशुद्धि शुद्धता के रूप में आती है तो बड़ी प्रीतिकर होती है। जंजीरें अगर आभूषण बन कर आयें तो बड़ी प्रीतिकर होती हैं, और कारागृह भी अगर स्वर्ण का बना हो, हीरे मोतियों से सजा हो तो मंदिर मालूम हो सकता है।
दसरा उपाय है कि हम प्रतिपल, जहां भी 'मैं' का भाव उठे. जहां भी: उसे उसी क्षण छोड दें। मेरा मकान. तो हम पर ध्यान रखें, और मेरा को उसी क्षण छोड़ दें; क्योंकि कोई मकान मेरा नहीं है। हो भी नहीं सकता। मैं नहीं था, तब भी मकान
था; मैं नहीं रहूंगा तब भी मकान होगा। मैं केवल एक यात्री हूं, एक विश्रामालय में थोड़े क्षण को, और बिदा हो जाने को। ___ यह मेरा 'मैं' जहां भी जुड़े तत्काल उसे वहीं तोड़ देना है। मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरा धन, मेरा नाम, मेरा वंश, जहां भी यह मेरा जड़े उसे तत्काल तोड़ देना । उसे जुड़ने ही नहीं देना। शुद्ध करने की कोशिश ही नहीं करनी, उसे जुड़ने नहीं देना है, उसे छोड़ते ही चले जाना है।
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