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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 अनेक हो सकते हैं। संप्रदाय का अर्थ है, मार्ग। धर्म का अर्थ है, मंजिल। ___ एक और मित्र ने पूछा है कि अधर्म का आचरण मनुष्य इसलिए करता है कि मैं सामान्य नहीं हूं, विशेष हूं। उससे अहंकार को पुष्टि मिलती है। क्रोध से दूर रहने का, अस्तित्व जैसा है वैसा स्वीकार करने का, साधना करने का, मैं भी यथाशक्ति प्रयत्न करता हूं। इन कार्यों में आनंद भी मिलता है। हो सकता है, उसमें अहंकार की पुष्टि भी होती हो। अहंकार को विलीन करने की प्रक्रिया में भिन्न प्रकार का अहंकार भी समर्पित हो जाता है। सामान्य मनुष्य अहंकार के सिवाय और है क्या? क्या यह संभव है कि अहंकार का ही किसी इष्ट दिशा में संशोधन होते-होते आखिर में कुछ प्राप्त करने योग्य तत्व बच रह जाये? ये दो साधना पद्धतियां हैं। एक, कि अहंकार को हम शुद्ध करते चले जायें। क्योंकि जब अहंकार शुद्धतम हो जाता है तो बचता नहीं। शुद्ध होते-होते, होते-होते ही विलीन हो जाता है। एक। इसके सारे मार्ग अलग हैं कि हम अहंकार को कैसे शुद्ध करते चले जायें। खतरे भी बड़े हैं। क्योंकि अहंकार शुद्ध हो रहा है या परिपुष्ट हो रहा है, इसकी परख रखनी बड़ी कठिन है। दूसरा रास्ता है, हम अहंकार को छोड़ते चले जायें, शुद्ध करने की कोशिश ही न करें, सिर्फ छोड़ने की कोशिश करें। जहां-जहां दिखायी पडे, वहां-वहां त्याग करते जायें। इसके भी खतरे हैं। खतरा यह है कि हमारे भीतर एक दसरा अहंकार जन्म जाये कि मैंने अहंकार का त्याग कर दिया है, कि मैं ऐसा हं, जिसके पास अहंकार बिलकुल नहीं है।। साधना निश्चित ही खतरनाक है। जब भी आदमी किसी दिशा में बढ़ता है तो भटकने के डर भी निश्चित हो जाते हैं। और कोई रास्ता ऐसा बंधा हुआ रास्ता नहीं है कि सुनिश्चित हो, कि आप जायें और मंजिल पर पहुंच ही जायें। क्योंकि इस अज्ञात के लोक में आपके चलने से ही रास्ता निर्मित होता है। रास्ता पहले से निर्मित हो तब तो आसानी हो जाये। यह कोई रेल की पटरियों जैसा मामला हो कि डिब्बों के भटकने का उपाय ही नहीं है, पटरी पर दौड़ते चले जायें, तब तो ठीक है। यह रेल की पटरियों जैसा मामला नहीं है। यहां रास्ता, लोह-पथ निर्मित नहीं है कि आप एक दफे पटरी पर चढ़ गये तो फिर उतरने का उपाय नहीं है, चलते ही चले जायेंगे और मंजिल पर पहुंचेंगे ही। नियति इतनी स्पष्ट नहीं है। और अच्छा है कि नहीं है, इसलिए जीवन में इतना रस, और रहस्य और आनंद है। अगर रेल की पटरियों की तरह आप परमात्मा तक पहुंच जाते हों, तो परमात्मा भी एक व्यर्थता हो जायेगी। ___ खोजना पड़ता है। सत्य की खोज, परमात्मा की खोज, मूलतः पथ की खोज है। और पथ भी अगर निर्मित हों बहुत से, तो भी आसान हो जाये कि हम अ को चुनें, ब को चुनें, स को चुनें। एक दफा तय कर लें और फिर चल पड़ें। . पथ की खोज, पथ का निर्माण भी है। आदमी चलता है, और चल कर ही रास्ता बनाता है, इसलिए खतरे हैं। इसलिए भटकने के सदा उपाय हैं। पर अगर सचेतना हो, तो सभी विधियों से जाया जा सकता है। अगर अप्रमाद हो, अगर होश हो, जागरूकता हो, तो कोई भी विधि का उपयोग किया जा सकता है। और अगर होश न हो, तो सभी विधियां खतरे में ले जायेंगी। इसलिए एक तत्व अनिवार्य है-रास्ता कोई हो, मार्ग कोई हो, विधि कोई हो-होश, अवेयरनेस अनिवार्य है। __अगर आप अहंकार को शुद्ध करने में लगे हैं तो अहंकार के शुद्ध करने का क्या अर्थ होता है ? पापी का अहंकार होता है कि मुझसे बड़ा डाकू कोई भी नहीं है। यह भी एक अहंकार है। साधु का अहंकार होता है कि मुझसे बड़ा साधु कोई भी नहीं है। पापी का अहंकार कहें कि काला अहंकार है। साधु का अहंकार कहें कि शुभ्र अहंकार है। लेकिन अगर साधु को होश न हो, डाकू को तो होगा ही नहीं होश, नहीं तो डाकू होना मुश्किल है। साधु को अगर होश न हो, और यह बात मन को ऐसा ही रस देने लगे कि मुझसे बड़ा साधु कोई नहीं है, जैसा कि डाकू को देती है, कि मुझसे बड़ा डाकू कोई नहीं है, तो यह भी काला अहंकार हो गया, यह भी 390 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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