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________________ धर्म का मार्ग : सत्य का सीधा साक्षात् धर्म भी एक सीधी यात्रा है, सरल यात्रा है। लेकिन धर्म में हमें रस नहीं, रस हमें टेढ़े-मेढ़ेपन में है; क्योंकि रस हमें अहंकार में है। अभी स्पास्की और बॉबी फिशर में शतरंज की होड़ थी। अगर स्पास्की पहले दिन ही कह दे कि लो तुम जीत गये। इतनी सरल हो अगर जीत, तो जीत में कोई रस न रह जायेगा। जीत जितनी कठिन है, जितनी असंभव है, जितनी मुश्किल है, उतनी ही रसपूर्ण हो जाती है। और मजा यह है, आदमी इसके लिए कैसे-कैसे उपाय करता है ! शतरंज बड़ा मजेदार उपाय है। आदमी एक नकली युद्ध करता है-नकली ! कुछ भी नहीं है वहां, न हाथी हैं, न घोड़े हैं, न कुछ है-नकली है सब, लेकिन रस असली है। रस वही है जो असली हाथी घोड़े से मिलता है। बिलकुल वह महंगा धंधा था। पुराने लोग उस धंधे को काफी कर चुके। ___ खेल, युद्ध का संक्षिप्त अहिंसात्मक संस्करण है। उसमें भी हम लड़ते हैं नकली साधनों से, लेकिन थोड़ी ही देर में नकली साधन भूल जाते हैं और असली हो जाते हैं। कोई घोड़ा क्या घोड़ा होगा मैदान पर, जो शतरंज के बोर्ड पर हो जाता है। क्यों ? आखिर इस नकली लकड़ी के घोड़े में इतना रस? यह असली कैसे हो जाता है? जिस घोड़े पर भी अहंकार की सवारी हो जाये, वह असली हो जाता है। अहंकार चलता है, घोड़े थोड़े ही चलते हैं ! फिर जितनी कठिनाई हो, जितनी असंभावना हो और जितना सस्पेंस हो, और जितना संदेह हो जीत में, उतनी ही बात बढ़ती चली जाती है। ___ आदमी ने बहुत उपाय किये हैं, जिनसे वह जो सीधा संभव है, उसको भी बहुत लंबी यात्रा करके संभव करता है। इसे महावीर कहते हैं, जान-बूझकर, साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़कर। जैसा मूर्ख गाड़ीवान पछताता है। कब पछताता है मूर्ख गाड़ीवान ? जब धुरी टूट जाती है। जब गाड़ी उल्टे-सीधे रास्ते पर, पत्थरों पर, कंकड़ों पर, मरुस्थल में उलझ जाती है कहीं, और गाड़ी की धुरी टूट जाती है। जब एक चाक बहुत ऊपर और एक चाक बहुत नीचे हो जाता है, तब धुरी टूटती है। धुरी टूटने का मतलब है कि दोनों चाक जहां समान नहीं होते, असंतुलित हो जाते हैं। वहां धुरी टूट जाती है। वहां दोनों को संभालने वाली धुरी टूट जाती है। तब पछताता है, तब दुखी होता है, लेकिन तब कुछ भी नहीं किया जा सकता। तब कुछ भी करना मुश्किल हो जाता है। जीवन में भी हम धुरी को तोड़कर ही पछताते हैं। जो पहले समझ लेता है, वह कुछ कर सकता है। जो तोड़कर ही पछताने का आदी है, तो जीवन ऐसी घटना नहीं है कि तोड़कर पछताने का कोई उपाय हो। जो मृत्यु के बाद ही पछताएगा, उसके लिए फिर पीछे लौटने का उपाय नहीं है। हम भी पछताते हैं जब धुरी टूट जाती है। धुरी हमारी भी तब टूटती है जब असंतुलन बड़ा हो जाता है, एक चाक ऊपर और एक चाक बहुत नीचे हो जाता है। यह होगा ही तिरछे रास्तों पर । 'अधर्म को पकड़ लेता है, और अंत में मृत्यु के मुख में पहुंचने पर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।' अधर्म को हम पकड़ते ही इसलिए हैं, अहंकार की वहां तृप्ति है। और धर्म को हम इसीलिए नहीं पकड़ते हैं कि वहां अहंकार से छुटकारा है। धर्म की पहली शर्त है, अहंकार छोड़ो। वही अड़चन है। अधर्म का निमंत्रण है, आओ, अहंकार की तृप्ति होगी। वही चुनौती है, वही रस है। अधर्म के द्वार पर लिखा है, बढ़ाओ अहंकार को, बड़ा करो। धर्म के द्वार पर लिखा है, छोड़ दो बाहर, अहंकार को। भीतर आ जाओ। तो जिनको भी इस बात में रस है कि मैं कुछ हूं, उन्हें धर्म की तरफ जाने में बड़ी कठिनाई होगी। जो इस बात को समझने की तैयारी में हैं कि मैं ना कुछ हं, उनके लिए धर्म का द्वार सदा ही खुला हुआ है। जिनको जरा भी है कि मैं कुछ हूं, वे अधर्म में खींच लिए जायेंगे –चाहे वे मंदिर जायें, मस्जिद जायें, गुरुद्वारा जायें, कहीं भी जायें – जिनको यह रस है कि मैं कुछ हूं, जो मंदिर में प्रार्थना करते वक्त भी 373 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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