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महावीर वाणी
भाग : 1
है। इस चेष्टा का एक ही अर्थ है कि जो असंभव है, वह हम करके दिखा दें। अगर आदमी सहज जी रहा हो, तो हमें खयाल में भी नहीं आ सकता है कि वह धार्मिक हो सकता है।
सहज आदमी हमारे खयाल में नहीं आता कि धार्मिक भी हो सकता है। लेकिन कबीर ने कहा है, 'साधो, सहज समाधि भली' । कारण है कहने का । सहज का अर्थ यह जो महावीर कह रहे हैं, वह समझदार आदमी, जो सीधे-सादे, साफ-सुथरे राजमार्ग को चुनता है; इसलिए कि कहीं पहुंचना है, इसलिए नहीं कि कुछ जीतना है।
ये दोनों अलग दिशाएं हैं। कहीं पहुंचना है, तो व्यर्थ श्रम लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है तब बीच में बाधाएं खड़ी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अगर कहीं पहुंचना नहीं है, सिर्फ अहंकार अर्जित करना है यात्रा में, तो फिर बाधाएं होनी चाहिए। तो आदमी अपने हाथ से भी बाधाएं निर्मित करता है। पैदल जाता है, तीर्थयात्रा को । मुझसे तीर्थयात्री कहते हैं कि जो मजा पैदल जाकर तीर्थयात्रा करने का है, वह ट्रेन में बैठकर जाने में नहीं है ।
स्वभावतः कैसे हो सकता है ? लेकिन जो और आगे बढ़ गये हैं गाड़ी को टेढ़े-मेढ़े उतारने में, वह जमीन पर साष्टांग दंडवत करते हुए तीर्थयात्रा करते हैं। उनका वश चले अगर, तो वे शीर्षासन करते हुए भी यह तीर्थयात्रा करें। लेकिन तब जो मजा आयेगा, निश्चित ही वह पैदल करनेवालों को नहीं आ सकता । क्यों ? वह मजा क्या है ? वह तीर्थ पहुंचने का मजा नहीं है। वह अहंकार निर्मित करने का मजा है। जो कोई नहीं कर सकता, वह मैं कर रहा हूं ।
धर्म हो, कि धन हो, कि यश हो, जो भी हो; हम मार्ग इरछे-तिरछे चुनते हैं जानकर, महावीर कहते हैं, वह अधर्म है। असल में धर्म तिरछा ही होगा, सीधा नहीं होता । कभी आपने खयाल किया है ? एक झूठ बोलें, तो बड़ी तिरछी यात्राएं करनी पड़ती हैं। सच बोलें, सीधा । सच बिलकुल वैसा है, जैसे इक्युलिड की रेखा - दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी। इक्युलिड की व्याख्या है रेखा की— दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी। तो रेखा सीधी होती है। दो बिंदुओं के बीच जितना लंबा चक्कर लगाते जायें, उतनी रेखा बड़ी तिरछी होती चली जाती है ।
सत्य भी दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी है। असत्य, सबसे बड़ी लंबी यात्रा है। इसलिए एक असत्य, फिर दूसरा, फिर तीसरा । एक को संभालने के लिए एक लंबी श्रृंखला है। बड़ा मजा है कि सत्य को संभालने के लिए कोई श्रृंखला नहीं होती। एक सत्य अपने में काफी होता है। सत्य एटामिक है। एक अणु काफी है ।
झूठ शृंखला है, सीरीज है। एक झूठ काफी नहीं है। एक झूठ को दूसरे झूठ का सहारा चाहिए। दूसरे झूठ को और झूठों का सहारा चाहिए, और झूठ हमेशा अधर में अटका रहता है, कितना ही सहारा देते जाओ, उसके पैर जमीन से नहीं लगते। क्योंकि हर झूठ जो सहारा देता है वह खुद भी अधर में होता है। आप सिर्फ पोस्टपोन करते हैं, पकड़े जाने को, बस। जब मैं एक झूठ बोलता हूं, तब तत्काल मुझे दूसरा झूठ बोलना पड़ता है कि पकड़ा न जाऊं। दूसरा बोलता हूं, तीसरा बोलना पड़ता है कि पकड़ा न जाऊं। फिर यह भय कि पकड़ा न जाऊं, तो मैं स्थगित करता जाता हूं। हर झूठ थोड़ी राहत देता है, फिर नए झूठ को जन्म देता है।
सत्य सीधा है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं है, सिर्फ झूठ को याद रखना पड़ता है। इसलिए जिनकी स्मृति कमजोर है, वे झूठ नहीं बोल सकते। झूठ बोलने के लिए स्मृति की कुशलता चाहिए। क्योंकि लंबी याददाश्त चाहिए। एक झूठ बोला है, उसकी पूरी शृंखला बनानी पड़ेगी। यह वर्षों तक चल सकती है। इसलिए झूठ बोलनेवालों का मन बोझिल होता चला जाता है । सच बोलनेवाले का मन खाली होता है, कुछ रखना नहीं पड़ता। कुछ संभालना नहीं पड़ता ।
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