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महावीर-वाणी भाग : 1
थी तो एक के लिए मांगी कि दस के लिए मांगी, क्या फर्क पड़ता है! फिर तुम कह रहे हो परमात्मा दयालु है। अगर वह दयालु है तो एक भी माफ कर देता, दस भी माफ कर देता। हम नाहक परेशान हुए। माफी मांगनी ही पड़ेगी। वह दयालु भी है, निश्चित दयालु है। हम नाहक चूके। पूरे ही कर लेते। तो मैं पछता रहा हूं-मुल्ला ने कहा-जरूर पछता रहा हूं, लेकिन उन पापों के लिए, जो मैंने नहीं किए; उन पापों के लिए नहीं, जो मैंने किए। __मरते वक्त आदमी पछताता है उन पापों के लिए जो उसने नहीं किए। लेकिन किसी भी पाप को करने के बाद का जो क्षण है वह बडा उपयोगी है। अगर आपने क्रोध किया है, तो क्रोध के बाद का जो क्षण है उसका उपयोग करें कायोत्सर्ग के लिए। उस वक्त आसान होगा आपको मानना कि मैं आत्मा हूं। उस क्षण शरीर से दूर हटना आसान होगा। अगर शराब पी ली है और सुबह हैंगओवर चल रहा है, तो उस वक्त आसान होगा मानना कि मैं आत्मा हूं। उस वक्त शरीर के प्रति एक तरह की ग्लानि का भाव, और शरीर अपराधों में ले जाता है, इस तरह का भाव सहज, सरलता से पैदा हो जाता है। जब बीमारी से उठ रहे हैं तब बहुत आसान होगा मानना । अस्पताल में जाकर खड़े हो जाएं, वहां मानना बहुत आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। जायें, वहां विचित्र-विचित्र प्रकार से लोग लटके हुए हैं, किसी की टांगें बंधी हुई हैं, किसी की गर्दन बंधी हुई है। वहां खड़े होकर पूछे कि मैं शरीर हूँ? तो शरीर हूं तो वह जो सामने लटके हुए रूप दिखाई पड़ेंगे वही हूं। वहां आसान होगा। मरघट पर जाकर आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। जिन क्षणों में भी
आसानी लगे स्मरण करने की कि मैं आत्मा हूं, उनको चूकें मत, स्मरण करें। दो स्मरण जारी रखें-निषेध रूप से-मैं शरीर नहीं हूं; विधायक रूप से-मैं आत्मा हूं।
और तीसरी आखिरी बात-शरीर का जो तत्व है, वह उसी तत्व से संबंधित है जो हमारे बाहर फैला हुआ है। मेरी आंख में जो प्रकाश है, वह सूरज का; मेरे हाथों में जो मिट्टी है, वह पृथ्वी की; मेरे शरीर में जो पानी है, वह पानी का; इसको स्मरण रखें। और निरंतर समर्पित करते रहें जो जिसका है उसी का है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आपके भीतर वह चेतना अलग खड़ी होने लगेगी जो शरीर नहीं है।
और वह चेतना खड़ी हो जाए और ध्यान के साथ उस चेतना का प्रयोग हो, तो आप कायोत्सर्ग कर पाएंगे। ___ जब ध्यान अपनी प्रगाढ़ता में आएगा, परिपूर्णता में, और शरीर लगेगा छूटता है, तब आपका मन पकड़ने का नहीं होगा। आप कहेंगे-छूटता है तो धन्यवाद! जाता है तो धन्यवाद! जाए तो जाए, धन्यवाद! इतनी सरलता से जब आप ध्यान में शरीर से अपने को छोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, उसी दिन आप मृत्यु के पार और अमृत के अनुभव को उपलब्ध हो जाएंगे । उसके बाद फिर कोई मृत्यु नहीं है। मत्य शरीर मोह का परिणाम है। अमत्व का बोध शरीर मक्ति का परिणाम है। इसे महावीर ने बारहवां तप कहा है और अंतिम । क्योंकि इसके बाद कुछ करने को शेष नहीं रह जाता। इसके बाद वह पा लिया जिसे पाने के लिए दौड़ थी; वह जान लिया जिसे जानने के लिए प्राण प्यासे थे। वह जगह मिल गई जिसके लिए इतने रास्तों पर यात्रा की थी। वह फूल खिल गया, वह सुगंध बिखर गयी, वह प्रकाश जल गया जिसके लिए अनंत-अनंत जन्मों तक का भटकाव था। ___ कायोत्सर्ग विस्फोट है, एक्सप्लोजन है। लेकिन उसके लिए भी तैयारी करनी पड़ेगी। उसके लिए यह तैयारी करनी पड़े और ध्यान
के साथ उस तैयारी को जोड़ देना पड़ेगा। ध्यान और कायोत्सर्ग जहां मिल जाते हैं, वहीं व्यक्ति अमृत्व को पा लेता है। __ ये महावीर के बारह तप मैंने कहे। एक ही सूत्र पूरा हो पाया, कहूं अभी एक ही पंक्ति पूरी हो पाई, उसकी दूसरी पंक्ति बाकी है। लेकिन उसमें ज्यादा कहने को नहीं है। दूसरी पंक्ति इसकी बाकी है। महावीर ने कहा है- 'धर्म मंगल है। कौन-सा धर्म? अहिंसा, संयम, तप। और जो इस धर्म को उपलब्ध हो जाते हैं, जो इस धर्म में लीन हो जाते हैं, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं।' यह दूसरा हिस्सा इस सूत्र का है।
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