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कायोत्सर्ग : शरीर से विदा लेने की क्षमता
काया में लौटना नहीं है। फिर शरीर में पुनरागमन नहीं है, फिर संसार में वापसी नहीं है। कायोत्सर्ग प्वाइंट आफ नो रिटर्न है, उसके बाद लौटना नहीं है। । लेकिन कायोत्सर्ग तक से हम लौट सकते हैं। जैसे पानी को हम गर्म करते हों, निन्यानबे डिग्री से भी पानी लौट सकता है भाप बने बिना। साढ़े निन्यानबे डिग्री से भी लौट सकता है। सौ डिग्री के पहले जरा सा फासला रह जाए तो पानी वापस लौट सकता है, गर्मी
देर में पानी फिर ठंडा हो जाएगा। ध्यान से भी वापस लौटा जा सकता है. जब तक कि कायोत्सर्ग घटित न हो जाए। आपने एक शब्द सुना होगा, भ्रष्ट योगी; पर कभी खयाल न किया होगा कि भ्रष्ट योगी का क्या अर्थ होता है। शायद आप सोचते होंगे कि कोई भ्रष्ट काम करता है, ऐसा योगी। भ्रष्ट योगी का अर्थ होता है जो कायोत्सर्ग के पहले ध्यान से वापस लौट आए। ध्यान तक चला गया, लेकिन ध्यान के बाद जो मौत की घबराहट पकड़ी तो वापस लौट आया। फिर उसका जन्म हो गया। इसे भ्रष्ट योगी कहेंगे।
भ्रष्ट योगी का अर्थ यह है कि निन्यानबे डिग्री तक पहुंचकर जो वापस लौट आया। सौ डिग्री तक पहुंच जाता तो भाप बन जाता, तो रूपांतरण हो जाता। तो नया जीवन शुरू हो जाता, तो नयी यात्रा प्रारंभ हो जाती। ध्यान निन्यानबे डिग्री तक ले जाता है। सौवीं डिग्री पर तो आखिरी छलांग पूरी करनी पड़ती है। वह है शरीर को उत्सर्ग कर देने की छलांग।
लेकिन हम अपनी तरफ से समझें, जहां हम खड़े हैं। जहां हम खड़े हैं वहां शरीर मालूम पड़ता है कि मेरा है। ऐसा भी नहीं, सच में तो ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं शरीर हूं। हमें कभी कोई एहसास नहीं होता है कि शरीर से अलग भी हमारा कोई होना है। शरीर ही मैं हूं। तो शरीर पर पीड़ा आती है तो मुझ पर पीड़ा आती है, शरीर को भूख लगती है तो मुझे भूख लगती है, शरीर को थकान होती है तो मैं थक जाता हूं। शरीर और मेरे बीच एक तादात्म्य है, एक आइडेंटिटी है, हम जुड़े हैं, संयुक्त है। हम भूल ही गए हैं कि मैं शरीर से पृथक भी कुछ हूं। एक इंचभर भी हमारे भीतर ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जिसे मैंने शरीर से अन्य जाना हो।
इसलिए शरीर के सारे दुख हमारे दुख हो जाते हैं, शरीर के सारे संताप हमारे संताप हो जाते हैं शरीर का जन्म हमारा जन्म बन जाता
शरीर का बढापा हमारा बढापा बन जाता है। शरीर की मत्य हमारी मत्य बन जाती है। शरीर पर जो घटित होता है, लगता है वह मझ पर घटित हो रहा है। इससे बड़ी कोई भ्रांति नहीं हो सकती। लेकिन हम बाहर से ही देखने के आदी हैं, शरीर से ही पहचानने के आदी
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन का पिता अपने जमाने का अच्छा वैद्य था। बूढ़ा हो गया है बाप। तो नसरुद्दीन ने कहा-अपनी कुछ कला मुझे भी सिखा जाओ। कई दफे तो मैं चकित होता हूं देखकर कि नाड़ी तुम बीमार की देखते हो और ऐसी बातें कहते हो जिनका नाड़ी से कोई संबंध नहीं मालूम पड़ता। यह कला थोड़ी मुझे भी बता जाओ।
बाप को कोई आशा तो न थी कि नसरुद्दीन यह सीख पाएगा, लेकिन नसरुद्दीन को लेकर अपने मरीजों को देखने गया। एक मरीज को उसने नाड़ी पर हाथ रखकर देखा और फिर कहा कि देखो, केले खाने बंद कर दो। उसी से तुम्हें तकलीफ हो रही है। नसरुद्दीन बहत हैरान हआ। नाड़ी से केले की कोई खबर नहीं मिल सकती है। बाहर निकलते ही उसने बापसे पूछा; बाप ने कहा-तुमने खयाल नहीं किया, मरीज को ही नहीं देखना पड़ता है, आसपास भी देखना पड़ता है। खाट के पास नीचे केले कि छिलके पड़े थे। उससे अंदाज लगाया।
दूसरी बार नसरुद्दीन गया, बाप ने नाड़ी पकड़ी मरीज की और कहा कि देखो, बहुत ज्यादा श्रम मत उठाओ। मालूम होता है पैरों से ज्यादा चलते हो। उसी की थकान है। अब तुम्हारी उम्र इतने चलने लायक नहीं रही, थोड़ा कम चलो। नसरुद्दीन हैरान हुआ। चारों तरफ देखा, कहीं कोई छिलके भी नहीं हैं, कहीं कोई बात नहीं है। बाहर आकर पूछा कि हद हो गयी, नाड़ी से...! चलता है आदमी
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