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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 ज्यादा। बाप ने कहा-तुमने देखा नहीं, उसके जूते के तल्ले बिलकुल घिसे हुए थे। उन्हीं को देखकर... । __ नसरुद्दीन ने कहा-अब अगली बार तीसरे मरीज को मैं ही देखता हूं। अगर ऐसे ही पता लगाया जा रहा है तो हम भी कुछ पता लगा लेंगे। तीसरे घर पहुंचे, बीमार स्त्री का हाथ नसरुद्दीन ने अपने हाथ में लिया। चारों तरफ नजर डाली, कुछ दिखाई न पड़ा। खाट के नीचे नजर डाली फिर मुस्कुराया। फिर स्त्री से कहा कि देखो, तुम्हारी बेचैनी का कुल कारण इतना है कि तुम जरा ज्यादा धार्मिक हो गयी हो। वह स्त्री बहुत घबराई। और चर्च जाना थोड़ा कम करो, बंद कर सको तो बहुत अच्छा। बाप भी थोड़ा हैरान हुआ। लेकिन स्त्री राजी हुई। उसने कहा कि क्षमा करें, हद हो गयी कि आप नाड़ी से पहचान गए। क्षमा करें, यह भूल अब दोबारा न करूंगी। तो बाप और हैरान हुआ। बाहर निकल कर बेटे को पूछा, कि हद्द कर दी तूने। तू मुझसे आगे निकल गया। धर्म! थोड़ा धर्म में कम रुचि लो, चर्च जाना कम करो, या बंद कर दो तो अच्छा हो, और स्त्री राजी भी हो गयी! बात क्या थी? नसरुद्दीन ने कहा-मैंने चारों तरफ देखा, कहीं कुछ नजर न आया। खाट के नीचे देखा तो पादरी को छिपा हुआ पाया। इस स्त्री की यही बीमारी है। और देखा आपने कि आपके मरीज तो सुनते रहे, मेरा मरीज एकदम बोला कि क्षमा कर दो, अब ऐसी भूल कभी नहीं होगी। लेकिन नसरुद्दीन वैद्य बन न पाया। बाप के मर जाने के बाद नसरुद्दीन दो चार मरीजों के पास भी गया तो मुसीबत में पड़ा। जो भी मरीज उससे चिकित्सा करवाए, वे जल्दी ही मर गए। निदान तो उसने बहुत किए, लेकिन कोई निदान किसी मरीज को ठीक न कर पाया। नसरुद्दीन बुढ़ापे में कहता हुआ सुना गया है कि मेरा बाप मुझे धोखा दे गया। जरूर कोई भीतरी तरकीब रही होगी, वह सिर्फ मुझे बाहर के लक्षण बता गया। बाप ने बाहर के लक्षण सिर्फ भीतरी लक्षणों की खोज के लिए कहे थे। और सदा ऐसा होता है। महावीर ने बाहर के लक्षण कहे हैं भीतर की पकड़ के लिए। परंपरा बाहर के लक्षण पकड़ लेती है और फिर धीरे-धीरे बाहर के लक्षण ही हाथ में रह जाते हैं। और फिर भीतर के सब सूत्र खो जाते हैं। नाड़ी से कोई मतलब ही नहीं रह जाता आखिर में। तो नसरुद्दीन को यह भी पक्का पता नहीं रहता था कि नाड़ी अंगुलियों के नीचे है भी या नहीं। वह तो आसपास देखकर निदान कर लेता था। सारी परंपराएं धीरे-धीरे बाह्य हो जाती हैं और नाड़ी से उनका हाथ छूट जाता है। कायोत्सर्ग का मतलब ही केवल इतना रह गया कि अपनी काया को जब भी कष्ट आए, तो उसे सह लेना। लेकिन ध्यान रहे, काया अपनी है, यह कायोत्सर्ग की परंपरा में स्वीकृत है। यह जो झूठी बाह्य परंपरा है वह भी कहती है, अपनी काया पर कोई कष्ट आए तो सह लेना। वह यह भी कहती है कि अपनी काया को उत्सर्ग करने की तैयारी रखना, लेकिन अपनी वह काया है, यह बात नहीं छूटती। - महावीर का यह मतलब नहीं है कि अपनी काया को उत्सर्ग कर देना। क्योंकि महावीर कहते हैं जो अपनी नहीं है उसे तुम कैसे उत्सर्ग करोगे? तुम कैसे चढ़ाओगे? अपने को उत्सर्ग किया जा सकता है, अपने को चढ़ाया जा सकता है, लेकिन जो मेरा नहीं है उसे मैं कैसे चढ़ाऊंगा। महावीर का कायोत्सर्ग से भीतरी अर्थ है कि काया तुम्हारी नहीं है, ऐसा जानना कायोत्सर्ग है। मैं काया को चढ़ा दूंगा, ऐसा भाव कायोत्सर्ग नहीं है क्योंकि तब तो इस उत्सर्ग में भी मेरे की, ममत्व की धारणा मौजूद है। और जब तक काया मेरी है तब तक मैं चाहे उत्सर्ग करूं, चाहे भोग करूं, चाहे बचाऊं और चाहे मिटाऊं। आत्महत्या करने वाला भी काया को मिटा देता है, लेकिन वह कायोत्सर्ग नहीं है। क्योंकि वह मानता है कि शरीर मेरा है। इसलिए मिटाता है। एक शहीद सूली पर चढ़ जाता है, लेकिन वह कायोत्सर्ग नहीं है। क्योंकि वह मानता है, शरीर मेरा है। एक तपस्वी आपके शरीर को नहीं सताता, अपने शरीर को सता लेता है, लेकिन मानता है कि शरीर मेरा है। तपस्वी आपके प्रति कठोर न हो, अपने प्रति बहुत कठोर होता है। क्योंकि वह मानता है यह शरीर मेरा है। आपको भूखा न मार सके, अपने को भूखा मार सकता है क्योंकि मानता 334 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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