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महावीर वाणी
भाग : 1
को हमसे अलग कर देती है। एक दीवार खड़ी हो जाती है। हमें कुछ भी याद नहीं रह जाता। फिर हम वही शुरू कर देते हैं जो हम बार-बार शुरू कर चुके हैं।
ध्यान में भी यही घटना घटती है, लेकिन शरीर के चुक जाने के कारण नहीं, मन की आकांक्षा के चुक जाने के कारण, यह फर्क होता है। शरीर तो अभी भी ठीक है लेकिन मन की शरीर को पकड़ने की जो वासना है वह चुक गयी। अब कोई मन पकड़ने का न रहा । तो शरीर और चेतना अलग हो जाते हैं, बीच का सेतु टूट जाता है। जोड़ने वाला हिस्सा है मन, आकांक्षा, वासना - वह टूट जाती है । जैसे कोई सेतु गिर जाए और नदी के दोनों किनारे अलग हो जाएं, ऐसे ही ध्यान में विचार और वासना के गिरते ही चेतना अलग और शरीर अलग हो जाता है। उस क्षण तत्काल हमें लगता है कि मृत्यु घटित हो रही है । और साधक का मन होता है - वापस लौट चलूं, यह तो मौत आ गयी। और अगर साधक वापस लौट जाए तो बारहवां चरण घटित नहीं हो पाता। अगर साधक वापस लौट जाए तो ध्यान भी अपनी पूरी परिणति पर नहीं पहुंच पाता। अगर साधक वापस लौट जाए भयभीत होकर इस बारहवें चरण से, तो सारी साधना व्यर्थ हो जाती है । इसलिए महावीर ने ध्यान के बाद कायोत्सर्ग को अंतिम तप कहा 1
जब यह सेतु टूटे तो इसे खड़े हुए देखते रहना कि सेतु टूट रहा है। और जब शरीर और चेतना अलग हो जाएं ध्यान में तो भयभीत न होना। अभय से साक्षी बने रहना। एक क्षण की ही बात । एक क्षण ही अगर कोई ठहर गया कायोत्सर्ग में, तो फिर तो कोई भय नहीं रह जाता। फिर तो मृत्यु भी नहीं रह जाती। जैसे ही शरीर और चेतना एक क्षण को भी अलग होकर दिखाई पड़ गए, उसी दिन से मृत्यु का सारा भय समाप्त हो गया। क्योंकि अब आप जानते हैं आप शरीर नहीं है, आप कोई और हैं। और जो आप हैं, शरीर नष्ट हो जाए तो भी वह नष्ट नहीं होता है। यह प्रतीति, यह अमृत का अनुभव, यह मृत्यु के जो अतीत है उस जगत में प्रवेश कायोत्सर्ग के बिना नहीं होता है।
परंपरा अर्थ कर रही है कि काया पर दुख आएं, पीड़ाएं आएं, तो उन्हें बीमारी आए तो उसे सहज भाव से सहना । कष्ट आएं, कर्मों के फल
लेकिन परंपरा कायोत्सर्ग का कुछ और ही अर्थ करती रही है। सहज भाव से सहना । कोई सताए तो उसे सहज भाव से सहना। आएं तो उन्हें सहज भाव से सहना । यह कायोत्सर्ग का अर्थ नहीं है, क्योंकि यह तो काया-क्लेश में ही समाविष्ट हो जाता है। यह तो बाह्य-तप है। अगर यही कायोत्सर्ग का अर्थ है तो महावीर पुनरुक्ति कर रहे हैं, क्योंकि काया-क्लेश में, बाह्य-तप में इसकी बात हो गयी है। महावीर जैसे व्यक्ति पुनरुक्ति नहीं करते। वे कुछ कहते हैं तभी जब कुछ कहना चाहते हैं। अकारण नहीं कहते । कायोत्सर्ग का यह अर्थ नहीं है । कायोत्सर्ग का तो अर्थ है काया को चढ़ा देने की तैयारी, काया को छोड़ देने की तैयारी, काया से दूर हो जाने की तैयारी, काया से भिन्न हूं ऐसा जान लेने की तैयारी; काया मरती हो तो भी देखता रहूंगा, ऐसा जान लेने की तैयारी ।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट पर भेजते थे कि वे मरघट पर रहें और लोगों की लाशों को देखें- जलते, गड़ाये जाते, पक्षियों द्वारा चीर-फाड़े जाते, मिट्टी में मिल जाते । भिक्षु बुद्ध से पूछते कि यह किसलिए? तो बुद्ध कहते - ताकि तुम जान सको कि काया में क्या-क्या घटित हो सकता है। और जो-जो एक की काया में घटित होता है वही वही तुम्हारी काया में भी घटित होगा। इसे देखकर तुम तैयार हो सको, मृत्यु को देखकर तुम तैयार हो सको कि मृत्यु घटित होगी। लेकिन कभी कोई भिक्षु कहता कि अभी तो मृत्यु को देर है, अभी मैं युवा हूं। तो बुद्ध कहते - मैं उस मृत्यु की बात नहीं करता; मैं तो उस मृत्यु की तैयारी करवा रहा हूं जो ध्यान में घटित होती है। ध्यान महा-मृत्यु है — मृत्यु ही नहीं महामृत्यु क्योंकि ध्यान में अगर मृत्यु घटित हो जाती है तो फिर कोई जन्म नहीं होता । साधारण मृत्यु के बाद जन्म की शृंखला जारी रहती है। ध्यान की मृत्यु के बाद जन्म की शृंखला नहीं रहती ।
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इसलिए महावीर इसे कायोत्सर्ग कहते हैं - काया का सदा के लिए बिछुड़ना हो जाता है। फिर दुबारा काया नहीं है, फिर दुबारा
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