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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 है। अगर एक आदमी मेरी छाती में आकर छुरा भोंक जाता है, तो भी यह कर्म उसका है, इससे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। छाती में छरा जरूर मेरे भुंक जाता है लेकिन इससे मेरा फिर भी कोई संबंध नहीं है। यह काम उसका ही है, वही जाने। वही इसके फल पाएगा, नहीं पाएगा, यह उसकी बात है। यह मेरा काम ही नहीं है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। महावीर इतना जरूर कहते हैं कि अगर यह मेरी छाती में छरा भुंकता है, तो इससे मेरा इतना ही संबंध हो सकता है कि मेरी पिछली यात्रा में मैंने यह तैयारी करवायी हो कि मेरी छाती में छा भुंके। इसका मेरी छाती में जाना मेरे पिछले कर्मों की कुछ तैयारी होगी। बस, उससे मेरा संबंध है। लेकिन उस आदमी का मेरी छाती में भोंकना, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। इससे उसकी अपनी अंतर्यात्रा का संबंध है। यह बात साफ-साफ दिखाई पड़ जाए तो हम पैरेलल अंतर्धाराएं हैं कर्मों की, समांतर दौड़ रहे हैं। और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है। लेकिन जब-जब हम जोड लेते हैं अपने से दूसरे की धारा को, तभी कष्ट शुरू होता है। विनय केवल इस बात की सूचना है कि मैं अपने से अब किसी को जोड़ता नहीं। इसलिए विनय को महावीर ने अंतर-तप कहा है। क्योंकि वह स्वयं को दूसरों से तोड़ लेना है। बिना पता चले चीजें टूट जाती हैं। और जब मेरे और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं रह जाता—प्रेम का नहीं, घृणा का नहीं संबंध ही नहीं रह जाता, सिर्फ निमित्त के संबंध रह जाते हैं, तब न कोई श्रेष्ठ है, न कोई अश्रेष्ठ है। न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। न कोई मेरा बुरा करने की कोशिश कर सकता है, न कोई मेरा भला करने की कोशिश कर रहा है। ___ महावीर कहते हैं कि जो कुछ मैं अपने लिए कर रहा हूं, मैं ही कर रहा हूं-भला तो भला, बुरा तो बुरा; मैं ही अपना नरक हूं, मैं ही अपना स्वर्ग हूं, मैं ही अपनी मुक्ति हूं। मेरे अतिरिक्त कोई भी निर्णायक नहीं है, मेरे लिए। तब एक हम्बलनैस, एक विनम्र भाव पैदा होता है जो अहंकार का रूप नहीं, अहंकार का अभाव है। जो अहंकार का डायल्यूट फार्म नहीं है, जो अहंकार का तरल, बिखरा हुआ, फैला हुआ आकार नहीं है-अहंकार का अभाव है। तो यह आखिरी बात खयाल में ले लें। विनम्रता यदि साधी जाएगी-जैसा हम साधते हैं कि इसको आदर दो, उसको आदर दो; इसको मत दो, उसको मत दो; आदर का भाव जन्माओ; विनम्र रहो; अहंकारी मत बनो, निरअहंकारी रहो-तो जो विनम्रता पैदा होगी, इट विल बी ए फार्म आफ इगो, वह अहंकार का ही एक रूप होगी। उससे समाज को थोड़ा फायदा होगा। क्योंकि आपका अहंकार कम प्रगट होगा, दबा हुआ प्रगट होगा, ढंग से प्रगट होगा, सुसंस्कृत होगा, कल्चर्ड होगा। लेकिन आपको कोई फायदा नहीं होगा। ___ इसलिए समाज की उत्सुकता इतनी ही है कि आप विनम्रता का आवरण ओढ़े रहें। बस समाज को इससे कोई मतलब नहीं है। समाज की औपचारिक व्यवस्था इतने से चल जाती है कि आप विनम्रता ओढ़े रहें। रहें भीतर अहंकारी, समाज का कोई मतलब नहीं है। लेकिन धर्म को इससे कोई प्रयोजन नहीं है कि आप बाहर क्या ओढ़े हुए हैं। धर्म को प्रयोजन है, आप भीतर क्या हैं? व्हाट यू आर? तो महावीर की जो विनय है वह समाज की व्यवस्था की विनय नहीं है कि पिता को, कि गुरु को, कि शिक्षक को, कि वद्ध को आदर दो। महावीर यह भी नहीं कहते कि मत दो। मैं भी नहीं कह रहा हं कि आप मत दो, बराबर दो। वही समाज का खेल है, जस्ट ए गेम, और जितना समझदार आदमी, उसको उतना ही खेल है। ___ एक मित्र अभी परसों ही आए और कहने लगे लड़के का यज्ञोपवीत होना है। और जब से आपको सुना तो लगता है यह तो बिलकुल बेकार है। लेकिन पत्नी जिद्द पर है, पिता जिद्द पर हैं, पूरा परिवार जिद्द पर है कि यह होकर रहेगा। तो मैं बाधा डालूं कि न डालूं? तो मैंने कहा कि अगर बिलकुल बेकार है तो बाधा क्या डालनी! अगर कुछ थोड़ा सार्थक लगता है तो बाधा डालो। अगर तुम्हें लगता है, कि यज्ञोपवीत का यह जो संस्कार-विधि होगी, यह बिलकुल बेकार है, इतनी बेकार अगर लगने लगी है तो ठीक है। जैसे घर के लोग सिनेमा देखने चले जाते हैं वैसे ही यज्ञोपवीत का समारोह हो जाने दो। जस्ट मेक इट ए गेम। है भी वह खेल। अब अगर 286 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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