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________________ विनय: परिणति निर अहंकारिता की निर्जन रास्ता खोजता है, निर्जन स्थान खोज लेता है। अगर इसीलिए खोज रहा है तो गलती कर रहा है। अगर यही कारण है कि मेरे भीतर जो भरा है वह दिखाई न पड़े किसी के कारण, तो गलती कर रहा है, भयंकर गलती कर रहा है। तुमसे उसका कोई भी संबंध नहीं है। इतना ही संबंध इस बात को दूसरी तरह भी सोच लेना है कि तुम भी महावीर कहते हैं कि दूसरा अपने कर्मों की श्रृंखला में नया कर्म करता है। है कि तुम मौके पर उपस्थित थे और उसके भीतर विस्फोट के लिए निमित्त बने। जब किसी के लिए विस्फोट करते हो तब वह भी निमित्त ही है। तुम ही अपनी श्रृंखला में जीते और चलते हो । इसे हम ऐसा समझें तो शायद समझना आसान पड़ जाए। दस आदमी एक ही मकान में हैं, एक आदमी बीमार पड़ जाता है, उसे फ्लू पकड़ लेता है। चिकित्सक उससे कहता है कि वायरस है। लेकिन दस आदमी भी घर में हैं, उनमें से नौ को नहीं पकड़ा है। तो चिकित्सक की कहीं बुनियादी भूल तो मालूम पड़ती है। वायरस इसी आदमी को खोजता है, इसका मतलब केवल इतना है कि वायर निमित्त बन सके, लेकिन इस आदमी के भीतर बीमारी संग्रहीत है। नहीं तो बाकी नौ लोगों को वायरस क्यों नहीं पकड़ रहा है? कोई दोस्ती है, कोई दुश्मनी है! बाकी नौ लोगों को नहीं, इस आदमी को क्यों पकड़ लिया? इस आदमी को इसलिए पकड़ लिया है कि इस आदमी के भीतर वह स्थिति है जिसमें वायरस निमित्त बनकर और फ्लू को पैदा कर सकता है। बाकी नौ के भीतर वह स्थिति नहीं है । तो वायरस आता है, चला जाता है। वह उनके भीतर फ्लू पैदा नहीं कर पाता । तो अब सवाल यह है— फ्लू वायरस पैदा करता है? अगर ऐसा आप देखते हैं तो आप महावीर को कभी न समझ पाएंगे। महावीर कहते हैं—प्लू की तैयारी आप करते हैं, वायरस केवल मेनिफैस्ट करता है, प्रगट करता है। तैयारी आप करते हैं, जिम्मेवार आप जिम्मेवारी सदा मेरी है। आसपास जो घटित होकर प्रगट होता है वह सिर्फ निमित्त है, उससे क्रोध का कोई कारण नहीं होता । धन्यवाद दिया भी जा सकता है ; अनुग्रह माना भी जा सकता है; क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। और तब आप में अहंकार के खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती। भीतर अहंकार नहीं है। क्योंकि क्रोध सिर्फ अहंकार अगर आपके अहंकार को तृप्ति मिलती जाए, आप ध्यान रहे, जहां क्रोध है, वहां भीतर अहंकार है । और जहां क्रोध नहीं, वहां के बीच डाली गयी बाधाओं से पैदा होता है, और किसी कारण पैदा नहीं होता। कभी क्रोधी नहीं होते। अगर सारी दुनिया आपके अहंकार को तृप्त करने को राजी हो जाए तो आप कभी क्रोधी न होंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा कि क्रोध भी कोई चीज थी। लेकिन अभी कोई आपके मार्ग में बाधा डालने को खड़ा हो जाए, आपको क्रोध प्रगट होने लगेगा। क्रोध जो है, अहंकार अवरुद्ध जब होता है तब पैदा होता है। लेकिन अब तो क्रोध का कोई कारण ही न रहा। अगर मैं यह मानता हूं कि आप अपने कर्मों से चलते हैं, मैं अपने कर्मों से चलता हूं, हम राह पर कहीं-कहीं मिलते हैं - किसी क्रास, किसी चौरस्ते पर मुलाकात हो जाती है, लेकिन फिर भी आप अपने से ही बोलते हैं, मैं अपने से ही बोलता हूं। मैं अपने से ही व्यवहार करता हूं, आप अपने से ही व्यवहार करते हैं। कहीं प्रगट जगत में हमारे व्यवहार एक दूसरे से तालमेल खा जाते हैं। पर वह सिर्फ निमित्त है। उसके लिए किसी को जिम्मेवार ठहराने का कोई कारण नहीं, तो फिर क्रोध का भी कोई कारण नहीं। और क्रोध का कोई कारण न हो तो अहंकार बिखर जाता है, सघन नहीं हो पाता है। विनय बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। दोष दूसरे में नहीं है, दूसरा मेरे दुख का कारण नहीं है। दूसरा श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ नहीं है । दूसरे से मैं कोई तुलना नहीं करता । दूसरे पर मैं कोई शर्त नहीं बांधता कि इस शर्त को पूरा करोगे तो मेरा आदर, मेरा प्रेम तुम्हें मिलेगा, सम्मान मिलेगा। मैं बेशर्त जीवन को सम्मान देता हूं। और प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चल रहा है। तो अगर मुझसे कोई भूल होती है तो मैं अपने भीतर अपने कर्म की श्रृंखला में खोजूं। अगर दूसरे से कोई भूल होती है तो यह उसका काम है इससे मेरा कोई भी संबंध नहीं Jain Education International 285 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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