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महावीर-वाणी
भाग : 1
कभी मनोविश्लेषण होना चाहिए कि उन्होंने जितने पापों की अपने बचपन में बात की है उतने किए? या उसमें कुछ कल्पित हैं। जरूरी नहीं है कि वे झूठ बोल रहे हों। आदमी का मन ऐसा है कि वह मान रहा हो कि जो वह कह रहा है, उसने किया, यह जरूरी नहीं है। तो वह जानकर लिख रहे हों कि यह मैंने किया नहीं और लिख रहा हूं। नहीं, बहुत बार दोहरा-दोहराकर उनको भी रस आ गया हो और लगता हो, किया है। आप बहुत-सी ऐसी स्मृतियां बनाए हुए हैं जो आपने कभी की नहीं, जो कभी हुआ नहीं। लेकिन आपने भरोसा कर लिया है, मानकर बैठ गए हैं और धीरे-धीरे राजी हो गए हैं। लियो टालस्टाय ने इतने पाप नहीं किए ऐसा मनस्विदों का कहना है, पर उसने घोषणा की है।
नहीं तो मैं यह नहीं कह रहा कि प्रायश्चित करनेवाला घोषणा करे जाकर कि मैं पापी हैं योंकि घोषणा में भी खतरा है। नहीं, प्रायश्चित करनेवाला अपने ही समक्ष स्वीकार करे कि मैं ऐसा हूं। किसी के सामने कहने की जरूरत नहीं। इसलिए दूसरा फर्क आपको बताता हूं।
पश्चात्ताप दूसरे के सामने प्रगट करना पड़ता है, प्रायश्चित स्वयं के समक्ष। पश्चात्ताप स्वयं के समक्ष करने का तो कोई मतलब नहीं। क्योंकि किसी को गाली तो दी दूसरे के समक्ष और क्षमा मांग लिया अपने मन में। इसका क्या मतलब है। जब गाली देने दूसरे के पास गए थे तो क्षमा मांगने दूसरे के पास जाना पड़ेगा। कर्म तो दूसरे से संबंधित होता है इसलिए पश्चात्ताप दूसरे से संबंधित होगा। लेकिन आपकी सत्ता तो किसी से संबंधित नहीं, आपसे ही संबंधित है। उसकी घोषणा दूसरे के सामने करना अनावश्यक है। और उसमें रस लें तो खतरा है। अपने ही समक्ष- प्रायश्चित अपने समक्ष, अपने ही समक्ष उघाड़कर देखना है अपनी पूरी नग्नता को कि मैं क्या हूं। __ और ध्यान रखें, दूसरे के समक्ष सदा डर है बदलाहट करने का, कुछ और बता देने का। इसलिए कोई भी आदमी सच्ची डायरी नहीं लिख पाता। भला वह दूसरे को पढ़ने के लिए न लिख रहा हो, लेकिन फिर भी कोई भी आदमी सच्ची डायरी नहीं लिख पाता, क्योंकि दूसरा पढ़ सकता है, इसकी सम्भावना तो सदा ही बनी रहती है। इसलिए सब डायरीज फाल्स होती हैं, झूठ होती हैं। अगर आपने डायरी लिखी है तो आप भलीभांति जानते हैं उसमें आप कितना छोड़ देते हैं जो लिखा जाना चाहिए था; कितना जोड़ देते हैं, जो नहीं था; कितना संभाल देते हैं, जैसी कि बात नहीं थी। लेकिन यह भी हो सकता है, इससे उल्टा भी हो सकता है कि जो पाप बहुत छोटा था, उसको आप बहुत बड़ा करके लिखें। अगर आपको पाप की घोषणा करनी है। तो वह भी हो सकता है। _आगस्टीन की किताब 'कनफेशंस' संदिग्ध है कि उसमें उसने जो लिखा है, सब हुआ हो। पाप की भी सीमा है। पाप भी आप असीम नहीं कर सकते, पाप की भी सीमा है। और आदमी की सामर्थ्य है पाप करने की। यह आदमी पाप से भी ऊब जाता है और उसका भी सेच्युरेशन प्वाइंट है। वहां भी शक्ति रिक्त हो जाती है और आदमी लौट पड़ता है। लेकिन दूसरे का खयाल हो अगर मन में तो रद्दोबदल का डर है, वह आपका सोया हुआ मन कुछ कर सकता है। इसलिए प्रायश्चित है स्वयं के समक्ष। इसका दूसरे से कोई भी लेना-देना नहीं है। ___ और ध्यान रहे, महावीर प्रायश्चित को इतना मूल्य दे पाए, क्योंकि परमात्मा को उन्होंने कोई जगह नहीं दी; नहीं तो पश्चात्ताप ही रह जाता, प्रायश्चित नहीं हो सकता था। क्योंकि जब परमात्मा देखनेवाला मौजूद है-देन इट इज़ आलवेज़ फार सम वन एल्स। चाहे आदमी के लिए न भी हो, लेकिन जब एक ईसाई फकीर एकांत में भी कह रहा है कि हे प्रभु! मेरे पाप हैं ये, तो दूसरा मौजूद है, दी अदर इज़ प्रेजेंट। वह परमात्मा ही सही, लेकिन दूसरे की मौजूदगी है। महावीर कहते हैं-कोई परमात्मा नहीं है जिसके समक्ष तुम प्रगट कर रहे हो, तुम ही हो। महावीर ने व्यक्ति को इतना ज्यादा स्वयं की नियति निर्णीत किया है, जिसका हिसाब नहीं। तुम ही
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