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महावीर-वाणी
भाग : 1
हमारा चित्त...लेकिन अभ्यास से सम्भव है। शरीर कुछ और प्रगट करने लगता है, मन कुछ और। तब दो धाराएं टूट जाती हैं। और ध्यान रहे राजनीति का ही नियम नहीं है, डिवाइड एंड रूल, साधना का भी नियम है। विभाजित करो और मालिक हो जाओ। अगर आप शरीर और मन को विभाजित कर सकते हैं तो आप मालिक हो सकते हैं आसानी से। क्योंकि तब संघर्ष शरीर और मन के बीच खड़ा हो जाता है और आप अछूते अलग खड़े हो जाते हैं।
इसलिए संलीनता का दूसरा अभ्यास है, मन में कुछ, शरीर में कुछ...'को आईने के सामने खड़े होकर अभ्यास करें। आईने के सामने इसलिए कह रहा हूं कि आपको आसानी पड़ेगी। एक दफा आसानी हो जाए, फिर तो बिना आईने के भी आप अनुभव कर सकते हैं। जब आपको क्रोध आए-फिर धीरे-धीरे आईने को छोड़ दें-जब आपको क्रोध आए तब उसको अवसर बनाएं. मेक इट एन अपरचुनिटी। और जब क्रोध आए तब आनंद को प्रगट करें। और जब घणा आए तब प्रेम को प्रगट करें। और जब किसी का सिर तोड़ देने का मन हो, तब उसके गले में फूलमाला डाल दें। और देखें अपने भीतर, ये दो धाराएं विभाजित-मन को और शरीर को दो हिस्सों में जाने दें, और आप अचानक ट्रांसेंडेंस में, अतिक्रमण में प्रवेश कर जाएंगे, आप पार हो जाएंगे। न आप क्रोध रह जाएंगे, न आप क्षमा रह जाएंगे। न आप प्रेम रह जाएंगे, न आप घृणा रह जाएंगे। और जैसे ही कोई दोनों के पार होता है, संलीन हो जाता है।
अब इस संलीन का अर्थ समझ लें-एक शब्द हम सुनते हैं, तल्लीन। यह संलीन शब्द बहुत कम प्रयोग में आता है। तल्लीनता हमने सुना है, संलीनता बहुत कम। और अगर भाषा कोश में जाएंगे तो एक ही अर्थ पाएंगे। नहीं एक ही अर्थ नहीं है। महावीर ने तल्लीनता का उपयोग नहीं किया है। तल्लीनता सदा दूसरे में लीन होना है और संलीनता अपने में लीन का अर्थ है जो किसी और में लीन है-चाहे भक्त भगवान में हो, वह तल्लीन है, संलीन नहीं। जैसा मीरा कृष्ण में-वह तल्लीन है। वह इतनी मिट गयी है कि शून्य हो गयी है, कृष्ण ही रह गए। पर कोई और, कोई दूसरा बिंदु, उस पर स्वयं को सब भांति समर्पित कर दें। वह एक मार्ग है, उस मार्ग की अपनी विधियां हैं। महावीर का वह मार्ग नहीं है। उस मार्ग से भी पहुंचा जाता है। उससे पहंचने का रास्ता अलग है। महावीर का वह रास्ता नहीं है। महावीर कहते हैं-तल्लीन तो बिलकुल मत होना, किसी में तल्लीन मत होना, इसलिए महावीर परमात्मा को भी हटा देते हैं, नहीं तो तल्लीन होने की सुविधा बनी रहेगी।
महावीर कहते हैं-संलीन हो जाना, अपने में लीन हो जाना। अपने में इतना लीन हो जाना कि दूसरा बचे ही नहीं। तल्लीन का सूत्र है - दूसरे में इतना लीन हो जाना कि स्वयं बचो ही न । संलीन होने का सूत्र है-इतने अपने में लीन हो जाना कि दूसरा बचे ही न। दोनों से ही एक की उपलब्धि होती है। एक ही बच रहता है। तल्लीन वाला कहेगा-परमात्मा बच रहता है; संलीन वाला कहेगा-आत्मा बच रहती है। वह सिर्फ शब्दों के भेद हैं और विवाद सिर्फ शाब्दिक और व्यर्थ और पंडितों का है। जिन्हें अनुभूति है वे कहेंगे वह एक ही बच रहता है। लेकिन संलीन वाला उसे परमात्मा नाम नहीं दे सकता, क्योंकि दूसरे का उपाय नहीं है। तल्लीनता वाला उसे आत्मा नहीं कह सकता, क्योंकि स्वयं के बचने का कोई उपाय नहीं। लेकिन जो बच रहता है, उसे कोई नाम देना पड़ेगा, अन्यथा अभिव्यक्ति असम्भव है। इसलिए संलीन वाला कहता है-आत्मा बच रहती हैं; तल्लीन वाला कहता है-परमात्मा बच रहता है। जो बच रहता है, वह एक ही है। यह नामों का फर्क है और विधियों के कारण नामों का फर्क है। यह पहुंचने के मार्ग की वजह से नाम का फर्क है।
संलीन का अर्थ है-अपने में लीन हो जाना। कोई अपने में है परा. जरा भी बाहर नहीं जाता है। कहीं कोई गति नहीं रही। क्योंकि गति तो दूसरे तक जाने के लिए होती है। अगति हो जाएगी। अपने तक आने के लिए किसी गति की कोई जरूरत नहीं है।
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