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संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार
वहां तो हम हैं ही। क्रिया नहीं रही, अक्रिया हो गयी क्योंकि क्रिया तो किसी और के साथ कुछ करना हो तो करनी होती है। अपने ही साथ करने के लिए कोई क्रिया नहीं रह जाती। अक्रिया हो जाएगी, अगति हो जाएगी, अचलता आ जाएगी। और जब भीतर यह घटना घटती है तो शरीर पर भी यह भाव फैल जाता है, मन पर भी यह भाव फैल जाता है। यह अतिक्रमण जब होता है, मन
और शरीर के पार जब स्वयं की प्रतीति होती है तो सब ठहर जाता है। सब ठहर जाता है-मन ठहर जाता है, शरीर ठहर जाता है। यह महावीर की प्रतिमा संलीनता की प्रतिमा है, सब ठहरा हुआ है। कुछ गति नहीं मालूम पड़ती। ___ अगर महावीर के हाथ को देखें तो ऐसा लगता है कि बिलकुल ठहरा हुआ है। इसलिए महावीर के हाथ में मसल्स नहीं बनाए गए किसी प्रतिमा में, क्योंकि मसल्स तो गति के प्रतीक होते हैं, क्रिया के प्रतीक होते हैं। तो महावीर की बाहें ऐसी हैं जैसे ण हैं। आपने खयाल नहीं किया होगा। किसी जैन तीर्थंकर की बाहों पर कोई मसल्स नहीं हैं। मसल्स तो क्रिया के सूचक हो जाते हैं। शरीर को जिस ढंग से बिठाया है, वह ऐसा है जैसे कि फूल अपने में बंद हो जाए, सब पंखुड़ियां बंद हो गयीं। फूल की सुगंध अब बाहर नहीं जाती, अपने भीतर रमती है। इसलिए महावीर का बहुत प्यारा शब्द है-आत्म-रमण-अपने में ही रमना। कहीं नहीं जाना, कहीं नहीं जाना। सब पंखड़ियां बंद हैं।
तो अगर महावीर के चित्र को देखें, एक ल की तरह खयाल करें तो फौरन महावीर की प्रतिमा में दिखाई पड़ेगा कि सब पंखुड़ियां बंद हो गयी हैं। महावीर अपने भीतर, जैसे फूल के भीतर कोई भंवरा बंद हो गया हो। ऐसी महावीर की सारी चेतना संलीन हो गयी है अपने में। सब सुगंध भीतर। अब कहीं कोई बाहर नहीं जा रहा है। कुछ बाहर नहीं जा रहा है। बाहर और भीतर के बीच सब लेन-देन बंद हो गया है। कोई हस्तांतरण नहीं होता है। न कुछ बाहर से भीतर आता है, न कुछ भीतर से बाहर जाता है। जब शरीर इतनी थिरता में आ जाता है, मन इतनी थिरता में आ जाता है तो श्वास भी बाहर-भीतर नहीं होती, ठहर जाती है...! इस क्षण को महावीर कहते हैं-समाधि उत्पन्न होती है, इस संलीन क्षण में अंतर्यात्रा शुरू होती है।
लेकिन संलीनता का अभ्यास करना पड़ेगा। हमारा अभ्यास है बाहर जाने का। भीतर जाने का हमारा कोई अभ्यास नहीं है। हम बाहर जाने में इतने ज्यादा कुशल हैं कि हमें पता ही नहीं चलता और हम बाहर चले जाते हैं। कुशलता का मतलब ही यही होता है कि पता न चले और काम हो जाए। हम इतने कुशल हैं बाहर जाने में। अब एक ड्राइवर है। अगर वह कुशल है तो वह गपशप करता रहेगा और गाड़ी चलाता रहेगा। कुशलता का मतलब ही यही है कि गाड़ी चलाने पर ध्यान भी न देना पड़े। अगर ध्यान देना पड़े तो वह अकुशल है। रेडियो सुनता रहेगा, गाड़ी चलाता रहेगा। मन में हजार बातें सोचता रहेगा, गाड़ी चलाता रहेगा। गाड़ी चलाना सचेतन क्रिया नहीं है। ___ कालिन विल्सन ने—एक पश्चिम के बहुत योग्य और विचारशील व्यक्ति ने कहा है कि हम उन्हीं चीजों में कुशल होते हैं...और जब कुशल हो जाते हैं तब...हमारे भीतर एक रोबोट, हमारे भीतर एक यंत्र-मानव है-सबके भीतर है। कुशलता का अर्थ है कि हमारी चेतना ने वह काम यंत्र-मानव को दे दिया, हमारे भीतर वह जो रोबोट है, वह करने लगता है; फिर हमें जरूरत नहीं रहती। तो ड्राइवर जब ठीक कुशल हो जाता है तो उसे कार चलानी नहीं पड़ती, उसके भीतर जो रोबोट, जो यंत्र-मानव है वह कार चलाने लगता है। वह तो कभी-कभी बीच में आता है, जब कोई खतरा आ जाता है और रोबोट कुछ नहीं कर पाता है। एक्सीडेंट का वक्त आया तो वह एकदम मौजूद हो जाता है। रोबोट से काम अपने हाथ में ले लेता है। वह जो भीतर यंत्रवत हमारा मन है उससे काम झटके से हाथ में लेना पड़ता है। जब एक्सीडेंट का मौका आ जाए, कोई गड्ढे में गिरने का वक्त आ जाए, अन्यथा वह रोबोट चलाए रखता है। मनोवैज्ञानिकों ने हजारों परीक्षण से तय किया है कि सभी ड्राइवर रात को अगर बहुत देर तक जागकर गाड़ी चलाते रहे हों,
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