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महावीर वाणी भाग : 1
बीच का संबंध टूट गया है इसलिए बात अप्रगट हो गई है। कभी भी प्रगट हो सकती है। अप्रगट हो जाने का अर्थ नष्ट हो जाना नहीं है। फिर दोनों को जोड़ दिया जाए, फिर प्रगट हो जाएगी। हमने बिजली का बटन बंद कर दिया है इसलिए बिजली नष्ट नहीं हो गयी है । सिर्फ बिजली की धारा में और बल्ब के बीच का संबंध टूट गया है। और बल्ब भी समर्थ है बिजली प्रगट करने में । बिजली की धारा भी समर्थ है अभी बल्ब से प्रगट होने में। सिर्फ संबंध टूट गया है, बिजली नष्ट नहीं हो गयी। फिर बटन आप आन कर देते हैं, बिजली जल जाती है।
जो आदमी वस्तुओं को छोड़कर सोच रहा है, रस का परित्याग हो गया, वह सिर्फ रस को अप्रगट कर रहा है, परित्याग नहीं । महावीर ने रस अप्रगट करने को नहीं कहा है, रस- परित्याग को कहा है। सिर्फ अनमैनिफेस्ट हो गया, अब प्रगट नहीं हो रहा 1 इसका यह मतलब नहीं कि नष्ट हो गया। बहुत-सी चीजें आप में प्रगट नहीं होती हैं, बहुत मौकों पर । जब कोई आदमी आपकी छाती पर छुरा रख देता है तब कामवासना प्रगट नहीं होती, लेकिन मुक्त नहीं हो गए हैं आप, सिर्फ छिप जाती है। कितनी ही भूख लगी हो और एक आदमी बंदूक लेकर आपके पीछे लग जाए, भूख मिट जाती है। इसका यह मतलब नहीं भूख मिट गयी, सिर्फ छिप गयी। अभी अवसर नहीं है प्रगट होने का। अभी निमित्त नहीं है प्रगट होने का इसलिए छिप गयी। छिप जाने को त्याग मत समझ लेना ।
और अकसर तो बात ऐसी है कि जो-जो छिप जाता है वह छिपकर और प्रबल और सशक्त हो जाता है। इसलिए जो आदमी रोज मिठाई खा रहा है, उसको मीठे का जितना अनुभव होता है, जिस आदमी ने बहुत दिन तक मिठाई नहीं खायी है, वह जब मिठाई खाता है तो उसका अनुभव और भी तीव्र होता है। उसका अनुभव और भी तीव्र होता है क्योंकि इतने दिनों तक रुका हुआ रस का जो अप्रगट रूप है, वह एकदम से प्रगट होता है, वह लडेड, उसमें बाढ़ आ जाती है। आ ही जाएगी। इसलिए जो आदमी वस्तुएं छोड़ने से शुरू करेगा वह वस्तुओं से भयभीत होने लगेगा। वह डरेगा कि कहीं वस्तु पास न आ जाए। अन्यथा रस पैदा हो सकता है
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एक दूसरा उपाय है कि आप इंद्रिय को ही नष्ट कर लें। जीभ को जला डालें, जैसा कि बुखार में हो जाता है, लम्बी बीमारी में हो जाता है। इंद्रिय के संवेदनशील जो तंतु हैं वे रुग्ण हो जाते हैं, बीमार हो जाते हैं, सो जाते हैं। लेकिन तब भी रस का कोई अंत नहीं होता । अगर मेरी आंख फूट जाए तो भी रूप देखने की आकांक्षा नहीं चली जाती। अगर आंख ही से रूप देखने की आकांक्षा जाती होती, तो बहुत आसान था। आंख हट जाने से, टूट जाने से, फूट जाने से रूप की आकांक्षा नहीं टूटती । कान फूट जाए तो भी ध्वनि का रस नहीं छूट जाता। मेरे पैर टूट जाएं, तो भी चलने का मन नष्ट नहीं हो जाता। जो जानते हैं वे तो कहते हैं- पूरा शरीर भी छूट जाए तो भी जीवेषणा नष्ट नहीं होती। नहीं तो दोबारा जन्म होना असम्भव है। जब पूरा शरीर छूटकर भी नया जीवन हम फिर से पकड़ लेते हैं तो एक-एक इंद्रिय को मारकर क्या होगा ? मृत्यु तो सभी इंद्रियों को मार डालती है। सभी इंद्रियां मर जाती हैं, फिर सभी इंद्रियों को हम पैदा कर लेते हैं, क्योंकि इंद्रियां मूल नहीं हैं। मूल कहीं इंद्रियों से भी पीछे है। इसलिए जो आंख-कान तोड़ने में लगा हो, वह भी बचकानी बातों में लगा है, वह नासमझी की बातों में लगा है। उससे रस नष्ट नहीं होगा। इंद्रिय के नष्ट होने से रस नष्ट नहीं होता । वस्तु के त्याग से रस नष्ट नहीं होता, इंद्रिय के नष्ट होने से रस नष्ट नहीं होता ।
तो क्या हम मन को मार डालें? मन को मारने में भी लोग लगे हैं। सोचते हैं कि मन को दबा-दबाकर नष्ट कर डालें तो शायद.... । लेकिन मन बहुत उल्टा है। मन का नियम यही है कि जिस बात को हम मन से नष्ट करना चाहते हैं, मन उसी बात में ज्यादा रसपूर्ण हो जाता है।
एक सुबह मुल्ला के गांव में उसके मकान के सामने बड़ी भीड़ है। वह अपनी पांचवीं मंजिल पर चढ़ा हुआ कूदने को तत्पर है।
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