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महावीर-वाणी
भाग : 1
भूख, फिर सजीव हो जाती है। दस दिन के बाद आदमी टूट पड़ता है जोर से भोजन पर । अति पर चला जाता है मन । असंयम है एक अति से दूसरी अति, अति पर डोलते रहना। फ्राम वन एक्सट्रीम टु दि अदर। संयम का अर्थ है- मध्य में हो जाना, अनति–नो एक्सट्रीम। __ अगर हम समझते हों कि ज्यादा भोजन असंयम है, तो मैं आपसे कहता हूं कि कम भोजन भी असंयम है, दूसरी अति पर । सम्यक आहार संयम है, सम्यक आहार बड़ी मुश्किल चीज है। ज्यादा भोजन करना बहुत आसान है। बिलकुल भोजन न करना बहुत आसान है। ज्यादा खा लेना आसान, कम खा लेना आसान- सम्यक आहार अति कठिन है। क्योंकि मन जो है, वह सम्यक पर रुकता ही नहीं। और महावीर की शब्दावली में अगर कोई शब्द सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है तो वह सम्यक है। सम्यक का अर्थ है- इन दि मिडल, नैवर टु दि एक्सट्रीम। कभी अति पर नहीं, सम। जहां सब चीजें सम हो जाती हों, अति का कोई तनाव नहीं रह जाता, जहां सब चीजें ट्रैक्विलिटी को उपलब्ध हो जाती हैं। जहां न इस तरफ खींचे जाते, न उस तरफ। जहां दोनों के मध्य में खड़े हो जाते हैं। वह जो सम-स्वर है जीवन का, सभी दिशाओं में... सभी दिशाओं में, उस सम-स्वरता को पा लेना संयम है। हम उसे कभी न पा सकेंगे। क्योंकि हम निषेध करते हैं। निषेध में हम दूसरी अति पर होते हैं। निषेध के लिए दूसरी अति पर जाना जरूरी होता है।
सना है मैंने कि मल्ला नसरुद्दीन एक चनाव में खड़ा हो गया। दौरा कर रहा था अपने कांस्टिट्यूएंसी का, अपने चुनावक्षेत्र का। बड़े नगर में आया, जो केन्द्र था चुनावक्षेत्र का। मित्रों से मिला। एक मित्र ने कहा कि फलां आदमी तुम्हारे खिलाफ ऐसा ऐसा बोलता था। तो मुल्ला जितनी गाली जानता था, उसने सब दीं।
उसने कहा-वह आदमी कोई आदमी है, शैतान की औलाद है। और एक दफा मुझे चुन जाने दो, उसे नरक भिजवाकर रहूंगा।
उस मित्र ने कहा कि मैंने तो सिर्फ सुना था कि मुल्ला, तुम बहुत अच्छी गालियां दे सकते हो, इसलिए मैंने यह कहा। वह आदमी तुम्हारा बड़ा प्रशंसक है।
मुल्ला ने कहा कि मैं पहले से ही जानता हूं, वह देवता है। एक दफा मुझे चुन जाने दो, देखना, मैं उसकी पूजा करवा दूंगा, मंदिरों में बिठा दूंगा। वह आदमी देवता है।
उस आदमी ने कहा- मुल्ला, इतनी जल्दी तुम बदल जाते हो?
मुल्ला ने कहा- कौन नहीं बदल जाता? सभी बदल जाते हैं। मन ऐसा ही बदलता है। जो आज रूप की देवी मालूम पड़ती है, कल वही साक्षात कुरूपता मालूम पड़ सकती है। - मन तत्काल एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। जिसे आज आप शिखरों पर बिठाते हैं, कल उसे आप घाटियों में उतार देते हैं। मन बीच में नहीं रुकता। क्योंकि मन का अर्थ है- तनाव, टैंशन । बीच में रुकेंगे तो तनाव तो होगा नहीं। जब तक अति पर न हो तब तक तनाव नहीं होता। इसलिए एक अति से दूसरी अति पर मन डोलता रहता है। मन जी ही सकता है अति में। संयम में तो मन समाप्त हो जाता है। इसलिए जब आप कहते हैं- फलां आदमी के पास बड़ा संयमी मन है तब आप बिलकुल गलत कहते हैं। संयमी के पास मन होता ही नहीं। इसलिए झेन-बौद्धों में जो फकीर हैं वे कहते हैं- संयम तभी उपलब्ध होता है जब 'नो-माइंड' उपलब्ध होता है। जब मन नहीं रह जाता है। कबीर ने कहा है- जब अ-मनी अवस्था आती है, नो-माइंड की, अ-मनी-मन नहीं रह जाता, तभी संयम उपलब्ध होता है। अगर हम ऐसा कहें कि मन ही असंयम है, तो कुछ अतिशयोक्ति न होगी। ठीक ही होगा यही। मन ही असंयम है। मन का नियम है-तनाव, खिंचे रहो। खिंचे रहो इसके लिए जरूरी है कि अति पर रहो, नहीं तो खिंचे नहीं रहोगे। अति पर रहो, तो खिंचाव बना रहेगा, तनाव बना रहेगा, चित्त तना रहेगा। और हम सब ऐसे लोग
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