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________________ २८ गो०जीवकाण्डे श्चासाविन्द्रश्च जिनेद्रः, स्वकीयावबोधप्रभावाभिव्याप्तत्रिकालत्रिभुवनविस्तार इति यावत् । वश्च रश्च वरौ चतुविशतिरित्यर्थः। निजामृतपुण्यमाहात्म्येन नागेन्द्रनरेन्द्र देवेन्द्रवृन्दं निजपादारविन्दद्वन्द्वे'नमयतीति नेमियदि वा तीर्थरथप्रवर्तनपरत्वान्नेमिरिव नेमिस्तीर्थकरसमुदायश्चन्दयत्याह्लादयति लोकत्रयनेत्रकैरववनानीति चन्द्रस्तथाविधरूपसौन्दर्यसंपन्नोऽयं यथाविधेन तुलायामिन्द्रादिसौन्दर्यसारसर्वस्वमपि परमाणूयते । नेमिश्चासौ चन्द्रश्च नेमिचन्द्रः। वरसंख्याविशिष्टो नेमिचन्द्रो वरनेमिचन्द्रः। जिनेन्द्रश्चासौ वरनेमिचन्द्रश्च जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रस्तं वृषभादिवीरावसानतीर्थकरनिकुरुबमित्यभिप्रायः। शेषविशेषणानां पूर्ववत्संबन्धः ।। अथवा प्रणम्य नमस्कृत्य। जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रम् । जयति भिनत्ति विदारयति कर्मभूभृन्निवहमिति जिनः। 'नामैकदेशो नाम्नि प्रवर्तते' इति न्यायेनेन्द्रभूतेदेवेन्द्रस्य वा। वरो गुरुरिन्द्रवरः ज्ञानादिनवकेवललब्धित्वात जिनः, निरुपमानपरमैश्वर्यसंपन्नत्वादिन्द्रः, जिनश्चासौ इन्द्रश्च जिनेन्द्रः स्वकीयावबोधप्रभावाभिव्याप्तत्रिकालत्रिभुवनविस्तार इति यावत् । वश्च रश्च वरौ चतुर्विंशतिरित्यर्थः । निजामृतपुण्यमाहात्म्येन नागेन्द्रनरेन्द्रदेवेन्द्रवन्दं निजपादारविन्दद्वन्द्वे नमयति इति नेमिः । यदि वा तीर्थरथप्रवर्तनपरत्वात् नेमिरिव नेमिः तीर्थकरसमुदायः । चन्द्रयति-आह्लादयति लोकत्रयनेत्ररववनानीति चन्द्रस्तथाविधरूपसौन्दर्य संपन्नोदयः यद्रूपसंपदातुलायां इन्द्रादिसौन्दर्यसारसर्वस्वमपि परमाणूयते । नेमिश्चासौ चन्द्रश्च नेमिचन्द्रः वरसंख्या१५ विशिष्टो नेमिचन्द्रो वरनेमिचन्द्रः । जिनेन्द्र श्चासौ वरनेमिचन्द्रश्च जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रः, तं । वृषभादिवीरावसानतीर्थकरनिकुरम्बमित्यभिप्रायः । शेषविशेषणानां पूर्ववत्संबन्धः । अथवा प्रणम्य-नमस्कृत्य, कं ? जिनेन्द्र वरनेमिचन्द्रं, जयति-भिनत्ति विदारयति कर्मभूभृन्निवहमिति जिनः “नामैकदेशो नाम्नि प्रवर्तते" इति न्यायेन इन्द्रस्य-इन्द्रभूतेः देवेन्द्रस्य वा वरः-गुरुः इन्द्रवरः घातिकर्मरूप मेघपटल, उसके विघटनसे प्रकट हुए अनन्तज्ञान आदि नौ केवललब्धियोंसे २. सम्पन्न होनेसे जिन और जिसकी कोई उपमा नहीं ऐसे परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेसे इन्द्र होनेसे जिनेन्द्र हैं। अर्थात् जिन्होंने अपने ज्ञानकी प्रभासे तीनों कालों और तीनों लोकोंके विस्तारको व्याप्त किया है। 'कटपयपुरस्थवर्णैः' इत्यादि गणनाके अनुसार 'व' से चार और 'र' से दो लिया जाता है क्योंकि 'य' से 'र' दूसरा और 'व' चतुर्थ अक्षर है। 'अंकानां वामतो गतिः' नियमके अनुसार इसे पलट देनेसे वरसे चौबीस संख्याका बोध होता है। २५ अपने अद्भुत पुण्य माहात्म्यसे नागेन्द्र, नरेन्द्र और देवेन्द्रोंके समूहको अपने चरणकमल युगलमें नमन करानेसे नेमि हैं । अथवा तीर्थरूपी रथका प्रवर्तन करने में तत्पर होनेसे जो नेमिके समान है,वह नेमि है अर्थात् तीर्थकर समुदाय । तीनों लोकोंके नेत्ररूप श्वेतकमलोंके वनको आह्लादयुक्त करनेसे चन्द्र हैं अर्थात् जिनके इस प्रकारके रूपसौन्दर्य सम्पन्नताका उदय है कि जिस रूपसम्पदाकी तुलनामें इन्द्र आदिके सौन्दर्यके सारका सर्वस्व भी परमाणु३० के तुल्य प्रतीत होता है। नेमि, वही हुए चन्द्र, वर संख्या विशिष्ट नेमिचन्द्र वरनेमिचन्द्र । जिनेन्द्र ही हए वरनेमिचन्द्र । अर्थात वृषभजिनसे लेकर महावीरपर्यन्त तीर्थकरों दायको नमस्कार करके। शेष विशेषणोका सम्बन्ध पूर्ववत् जानना । जो कर्मरूपी पर्वतोंका भेदन करता है, वह जिन है। 'नामके एकदेशसे नामका ग्रहण होता है। इस न्यायसे इन्द्र अर्थात् इन्द्रभूति अथवा देवेन्द्र, उनका वर अर्थात् गुरु, इन्द्रवर ३५ १. मद्वंद्वं । २. क नेमियदेवा । ३. मनोदयतुलयां । ४. मद्रस्यासो । ५. म विसेषाणां । ६. म वर्तत । ७. मयेन जिनेन्द्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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