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________________ गो० जीवकाण्डे 'प्रथमवयसि पोतं तोयमल्पं स्मरन्तः शिरसि निहितेभारा नालिकेरा नराणाम् । उदकममृतकल्पं दधुराजीवितान्तं, न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥' उक्तं च तदेतत्सर्वम् । 'विघ्नं नाशयितुं सदाचरितमन्वाचेष्टितं चाथवा, नास्तिक्यं परिहर्तुमभ्युदयसंप्राप्तः परं कारणम्। पुण्यं चार्जयितुं विशुद्धमतिभिः पूर्वोपकाराय था, शास्त्रादौ क्रियते जिनेन्द्रनमनं मुख्यं वरं मंगलम्' ॥इति सिद्धं सुद्धं पणेविय जिणिंदवरणेमिचंदमकलंक । ___ गुणरयणभूषणुदयं जीवस्स परूवणं वोच्छं ॥१॥ सिद्धं शुद्धं प्रणम्य जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रमकलंकं । गुणरत्नभूषणोदयं जोवस्य प्ररूपणं वक्ष्यामि ॥ अयास्याः मंगलगाथाया अर्थः कथ्यते। वक्ष्यामि करिष्यामि । किम् । प्ररूपणं निरूपणं व्याख्यानम् । अथवा प्ररूपयतीति प्ररूप्यतेऽनेनेति वा प्ररूपणो ग्रन्थस्तम् । कस्य प्ररूपणम् । जीवस्य। १५ चतुभिः प्राणैर्जीवति जीविष्यत्यजीवविति जीव आत्मा। तस्य जीवस्य भेवप्रतिपावकं शास्त्रमहं वक्ष्यामीति प्रतिज्ञा। अनया शास्त्रस्य संबन्धाभिधेयशक्त्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनवत्वात् प्रेक्षावद्भिराव अत एव विघ्नं विनाशयितुं शिष्टाचारं परिपालयितुं नास्तिक्यं परिहर्तुमभ्युदयकारणपरमपुण्यमुपार्जयित कृतोपकारस्मरणार्थ च शास्त्रादौ जिनेन्द्रादिनमस्कारादिरूपमुख्यमंगलमाचरयन्नभिधेयप्रतिज्ञां प्रकाशयन सिद्धमित्यादिगाथासूत्रमाह२० वक्ष्यामि करिष्यामि, कि? प्ररूपणं-निरूपणं व्याख्यानं, अथवा प्ररूपयतीति प्ररूप्यतेऽनेनेति वा प्ररूपणो ग्रन्थस्तं. कस्य प्ररूपणं? जीवस्य । चभिः प्राणर्जीवति जीविष्यत्यजोवदिति जीव:-आत्मा, तस्य तथा विशिष्ट विवेकशाली पुरुषोंके द्वारा उपकारका स्मरण तो दूर रहो, चैतन्यमात्र वाले एकेन्द्रिय जीवोंके भी उपकारका स्मरण देखा जाता है। कहा है-'प्रथम अंकुर अवस्थामें पिये गये थोडेसे जलका स्मरण रखते हुए नारियल के वृक्ष अपने मस्तक पर २५ नारियलोंका बोझा लादकर मनुष्योंको जीवन पर्यन्त अमृतके तुल्य जल प्रदान करते हैं। ठीक ही है साधुजन किये हुए उपकारको नहीं भूलते।' विघ्नोंका नाश करनेके लिए, अथवा सदाचरणका अनुपालन करनेके लिए अथवा नास्तिकताके परिहारके लिए और अभ्युदयकी प्राप्तिका उत्कृष्ट कारण पुण्यका उपार्जन करने के लिए अथवा किये हुए पूर्व उपकारके लिये विशुद्ध बुद्धिसे सम्पन्न पुरुष शास्त्रके आदिमें • जिनेन्द्रको नमस्कार करते हैं जो मुख्य उत्कृष्ट मंगल है। उसके लिए गाथा-सूत्र कहते हैं मैं प्ररूपण अर्थात् व्याख्यानको कहूँगा। अथवा, जो अर्थका प्ररूपण करता है, या जिसके द्वारा अर्थका प्ररूपण किया जाता है,उसे प्ररूपण कहते हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्ररूपणका अर्थ होता है ग्रन्थ । अतः मैं ग्रन्थको कहूँगा। किसका प्ररूपण करोगे उसमें ? जो चार प्राणोंसे जीता है, जियेगा और भूतकालमें जिया था,वह जीव अर्थात् आत्मा है । उस ३५ १. म विनत । २. म परं । ३. म पणमिय। ४. क जीविदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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