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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका 'सेदरजादिमलेणं रत्तच्छिकडक्खबाणमोक्खेहि । इयपहुडि देहदोसेण संततमसिदसरीरो ॥५०॥ स्वेदरजःप्रभृतिमलेन च रक्ताक्षिकटाक्षबाणमोक्षरेतत्प्रभृतिदेहदोषैः संततमदूषितशरीरः॥ आदिम संघणणजुदो समचउरस्संगचारसंठाणो। दिव्ववरगंधधारी पाठिद रोमणहरूवो ॥५१॥ आद्यसंहननयुतः समचतुरस्राङ्गचारसंस्थानः । दिव्यवरगन्धधारी प्रमाणस्थितरोमनखरूपः॥ 'णिन्भूसणाउहंबर भीदो सोम्माणणादिदिव्वतणू। अट्ठन्भहियसहस्सप्पमाणवरलक्खणोपेवो ॥५२॥ निभूषणायुधाम्बरभोतिः सौम्याननादिदिव्यतनुः । अष्टा भ्यधिकसहस्रप्रमाणवर- १० लक्षणोपेतः॥ 'चउविहउवसग्गेहि णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। "छुहपहुडिपरोसहीहि 'परिचत्तो रायदोसेहि ॥५३॥ देवमनुष्यतिर्यगचेतन-चतुर्विधोपसर्गनित्यं विमुक्तः । कषायपरिहोणः क्षुत्प्रभृतिपरोषहैः रागद्वेषैश्च परित्यक्तः॥ "जोयणपमाणसंठिद तिरियामरमणुवणिवह पडिबोहो। मिदुमहुरगभीरतरा विसदइसयसयलभासाहि ॥५४॥ मृदुमधुरगम्भीरतरविशदातिशयसकलभाषाभिर्योजनप्रमाणसंस्थिततियंगमरमनुजनिवह . प्रतिबोधः ॥ "अट्ठरस महाभासा खुल्लयभासाइ सत्तसयसंखा। अक्खर अणक्खरप्पयसण्णीजीवाण सयलभासाओ॥५५॥ अष्टादशमहाभाषाः क्षुल्लकभाषाः सप्तशतसंख्याः। अक्षरानक्षरात्मकसंज्ञिजीवानां सकल भाषाः॥ प्रातिहार्योपेतः समस्तसुरनरेन्द्रादिभिः समचितचरणसरोजस्त्रिभुवनकनाथोऽष्टादशमहाभाषासप्तशतक्षुल्लकभाषा जिनका शरीर पसीना,धूल आदि मलसे तथा लाल नयन, कटाक्ष रूपी बाणोंको मारना, २५ आदि शारीरिक दोषोंसे सदा अदूषित है, वर्षभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान रूप सुन्दर आकारसे यक्त है, उत्कष्ट दिव्य गन्धका धारी है. रोम और नख बढते नहीं हैं. भूषण,आयुध,वस्त्र और भयसे रहित है, सौम्य मुख आदिसे युक्त दिव्य रूप है, एक हजार आठ उत्कृष्ट लक्षणोंसे शोभित है। देव. मनुष्य तिर्यश्च और अचेतन कृत चार प्रकारके उपसगोंसे सदा रहित है। कषाय रहित है। भूख-प्यास आदि परीषहोंसे तथा राग-द्वेषसे ३० रहित है। अति कोमल मधुर गम्भीर और स्पष्ट अतिशयोंसे युक्त सकल भाषात्मक दिव्य ध्वनिके द्वारा एक योजन प्रमाण क्षेत्रमें स्थित तिर्यच देव और मनुष्योंके समूहको प्रति१. ति. प. ११५६ । २. क रत्तेच्छेकपक्ख । ३. क रक्ताक्षे कटाक्षेबाण । ४. ति. प. ११५७ । ५. क संघछण। म सघडण । ६. कमाणछिदं । ७. म संघन। ८. ति. प. ११५८ । ९. म भेदी। १०. मष्टब्यधि । ११. ति. प. ११५९ । १२. क क्षुदूं। १३. क सरि । १४. म नित्यवि । १५. ति. ३५ प. १०६०। १६. ति. प. १६६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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