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________________ ४७६ गो० जीवकाण्डे सिलपुढविभेदधूलीजलराइसमाणओ हवे कोहो । णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो ।।२८४।। शिलापृथ्वीभेदधूलोजलराजिसमानो भवेत्क्रोधः । नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादकः क्रमशः॥ शिलाभेद पृथ्वीभेद धूलोरेखा जलरेखासमानउत्कृष्टानुत्कृष्टाऽजघन्यजघन्यशक्तिविशिष्टमप्प क्रोधकषायमदु नारकतिर्यग्नरामरगतिगळोळ क्रमशो यथाक्रममुत्पादिसुगुं जीवमनदेतेंदोडे शिलाभेदसमानोत्कृष्टशक्तिविशिष्टक्रोधकषायं जीवर्ष नारकगतियोळपुट्टिसुगुं । पृथ्वीभेदानुत्कृष्टशक्तिविशिष्टक्रोघं तिर्यग्गतियोळु जीवमं पुट्टिसुगुं । धूलीरेखाऽजघन्यशक्तियुक्तक्रोधं जीवनं मनुष्य गतियोळु पुट्टिसुगुं । जलरेखासमानजघन्यशक्तियुक्तक्रोधं जीवनं देवगतियोळ्पुट्टिसुगुं। अरिवं १० तत्तच्छक्तियुक्तक्रोधकषायपरिणतजीवं तत्तद्गत्युत्पत्तिकारण तत्तदायुगत्यानुपूट्विनामादिप्रकृति गळं कटुगुम वुदत्थं । इल्लि राजिशब्दं रेखार्थवाचियक्कुं। पंक्ति वाचियल्तु। येतीगळु शिलाभेदादिगळ्ग चिरतर चिर शीघ्र शीघ्रतर कालंगळिंदमल्लदे संधानं धटिसदंते उत्कृष्टादिशक्तियुक्त क्रोधपरिणामजीवनुमंतप्प कालंगळल्लद क्षमालक्षणसंधानार्जनागर्ने दितुपमानोपमेयंगळगे सादृश्यं संभविसुगुम बिदु तात्पर्य्यात्थं । शिलाभेदपृथ्वीभेदधूलीरेखाजलरेखासमानः उत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्यजघन्यशक्तिविशिष्टक्रोधकपायः स नारकतिर्यग्नरामरगतिषु क्रमशो यथाक्रमं उत्पादयति जीवम् । तद्यथा-शिलाभेदसमानोत्कृष्टशक्तिविशिष्टक्रोधकषायः जीवं नरकगतावुत्पादयति । पृथ्वीभेदसमानानुत्कृष्टशक्तिविशिष्टः क्रोधः तिर्यग्गतौ जीवमुत्पादयति । धूलीरेखासमानाजघन्यशक्तियुक्तः क्रोधो जीवं मनुष्यगतावत्पादयति । जलरेखासमानजघन्यशक्तियुक्तः क्रोधः जीवं देवगतावुत्पादयति । तत्तच्छक्तियुक्तक्रोधकषायपरिणतो जीवः तत्तद्गत्युत्पत्तिकारणतत्तदायुर्गत्यानुप्रादिप्रकृतीबंध्नातीत्यर्थः । अत्र राजिशब्दो रेखार्थवाची न तु पक्तिवाची। यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीघशीघ्रतरकालैविना अनुसंधानं न घटते तथोत्कृष्टादिशक्तियुक्तक्रोधपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैविना क्षमालक्षणसंधानार्हो न स्यात इत्युपमानोपमेययोः सादृश्यं संभवतीति तात्पर्यार्थः ।।२८४॥ २५ प्रमाण है क्योंकि उसके कारण चारित्र मोहनीयके उत्तरोत्तर प्रकृति भेद असंख्यात लोक मात्र हैं ।।२८३॥ शिलाभेद, पृथ्वीभेद, धूलीरेखा और जलरेखाके समान उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य शक्तिसे विशिष्ट क्रोध कषाय जीवको क्रमसे नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति . और देवगतिमें उत्पन्न कराती है । स्पष्टीकरण इस प्रकार है-शिलाभेदके समान उत्कृष्ट शक्तिसे विशिष्ट क्रोध कषाय जीवको नरकगतिमें उत्पन्न कराती है। पृथ्वीभेदके समान अनुत्कृष्ट शक्तिसे विशिष्ट क्रोध जीवको यिंचगतिमें उत्पन्न कराता है। धूलकी रेखाके समान अजघन्य शक्तिसे युक्त क्रोध जीवको मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराता है। जलमें रेखाके समान जघन्य शक्तिसे युक्त क्रोध जीवको देवगतिमें उत्पन्न कराता है। इसका अभिप्राय यह है कि उस-उस शक्तिसे युक्त क्रोध कषायरूप परिणमा जीव उस-उस गतिमें उत्पत्ति में कारण उसउस आयु, गति, आनुपूर्वी आदि प्रकृतियोंको बाँधता है। यहाँ गाथा में आया 'राजि' शब्दका अर्थ रेखा लेना चाहिए, पंक्ति नहीं। जैसे शिला आदिमें पड़ी दरार अतिचिरकाल, ३. ३५ १. ब शिलाभेदादीनां । २. बणामजीवः त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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