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________________ ४६६ गो० जीवकाण्डे स्त्रीलक्षणं या स्तुणोति स्वयमन्यं च दोषैरिति स्त्री येदितु निरुक्तिपूर्वकमाचारिदं पेळल्पटुवु । वित्थी व पुमं णउंसओ उभयलिंगवदिरित्तो। इट्टावग्गिसमाणगवेयणगुरुओ कलुसचित्तो ॥२७॥ नैव स्त्री नैव पुमान् नपुंसक उभयलिंगव्यतिरिक्तः। इष्टिकापाकाग्निसमानक वेदनागुरुकः ५ कलुषचित्तः॥ यो जीवः आवनोर्वजीवं नैव पूमान् परगे पेळल्पटु पुरुषलक्षणाभावदिदं पुरुषनुमन्तु । नैव स्त्री उक्तस्त्रीलक्षणाभावदिदं स्त्रीयुमन्तु । ततः अदु कारणदिदं उभयलिंगव्यतिरिक्तः श्मश्रु स्तनादि पुंस्त्रीद्रयलिंगरहितनु इष्टिकापाकाग्निसमानतीवकामवेदनागुरुकनुं कलुषचित्तः सर्वदा तद्वदयिदं कलंकितहृदयनुमप्प स जीवः आ जीवनु नपुंसकमिति नपुंसकने दितु परमागम१० वोळु वर्णितः पेळल्पट्टनु । स्त्रीपुरुषाभिलाषरूपतीवकामवेदनालक्षण भावनपुंसकवेदमुंदिताचार्य्यन तात्पर्यमरियल्पडुगं। तिणकारिसिट्टपागग्गि-सरिस-परिणामवेयणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवर सोक्खा ॥२७६।। तृणकारोषेष्टकापाकाग्निसदृशपरिणामवेदनोन्मुक्ताः अपगतवेदा जीवाः स्वकसंभवानंतवर१५ सौख्याः॥ तथापि तासां दुर्लभत्वेन सर्वत्र सुलभप्राचुर्यव्यवहारापेक्षया स्त्रीलक्षणं स्तृणाति स्वयमन्यं च दोषैरिति स्त्री निरुक्तिपूर्वकमाचार्येणोक्तम् ॥२७४॥ ___ यो जीवो नैव पुमान्-पूर्वोक्तपुरुषलक्षणाभावात् पुरुषो न भवति, नैव स्त्री-उक्तस्त्रीलक्षणाभावात् स्त्री अपि न भवति । ततः कारणात् उभयलिङ्गव्यतिरिक्तः श्मश्रु स्तनादिपुंस्त्रीद्रव्यलिङ्गरहितः इष्टिका२० पाकाग्निसमानतीवकामवेदनागुरुकः, कलुषचित्तः सर्वदा तद्वेदनया कलङ्कितहृदयः स जीवो नपुंसकमिति परमागमे वर्णितः कथितः, तथापि स्त्रीपुरुषाभिलाषरूपतीवकामवेदनालक्षणो भावनपुंसकवेदोऽस्तीति आचार्यस्य तात्पर्य ज्ञातव्यम् ॥२७५॥ अब्रह्म, परिग्रह आदि पापोंसे आच्छादित करती है, तिस कारणसे द्रव्य और भावसे छादनशील होनेसे परमागममें स्त्री कहा है। यद्यपि तीर्थकरकी माता आदि किन्हीं सम्यग्दृष्टि २५ त्रियोंमें इन दोषोंका अभाव होता है, तथापि उनके दुर्लभ होनेसे तथा सर्वत्र उक्त दोषोंसे '. युक्त स्त्रियोंके सुलभ होनेसे आधिक्य व्यवहारकी अपेक्षा स्त्रीका उक्त लक्षण निरुक्ति पूर्वक कहा है ।।२-१४|| जो जीव पूर्वोक्त पुरुष लक्षणोंका अभाव होनेसे पुरुष नहीं है और उक्त स्त्री लक्षणोंका अभाव होनेसे स्त्री भी नहीं है, तिस कारणसे दाढ़ी, मँछ और स्तन आदि पुरुष और स्त्रीके विह्नोंसे रहित, इंट पकानेके पजावेकी आगके समान तीत्र कामवेदनासे पीड़ित होनेसे कलुषित चित्त उस जीवको परमागममें नपुंसक कहा है। उस जीवके स्त्री और पुरुषकी अभिलाषारूप तीव्र कामवेदना लक्षणवाला भाव नपुंसक वेद होता है ऐसा आचार्यका ! तात्पर्य जानना ॥२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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