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________________ ४१२ गो० जीवकाण्डे स्थितियोळिर्दा बादरपृथ्वीकायभवंगळननु. पालिसुतिप्पंगपर्याप्तभवंगळल्पंगळ पर्याप्तभवंगळु बहुकंगळु पर्याप्ताद्धगळ्दीग्धंगळपर्याप्ताद्धगळु हस्वंगळागळोम्म यायुष्यमं कटुगुमागळागळ् तत्प्रायोग्यजघन्ययोगदिदं कटुगु उत्कृष्टयोगदिदमाहारसुगुमुत्कृष्टयोगदिदं पेर्चुगुं। पलवू पलवू सूळगळुत्कृष्टयोगस्थानमुं पोद्गुंजघन्ययोगस्थानंगळं पलवू सूल् पोदनुं पलवू पलवू सूळ बहुसंक्लेश५ परिणामपरिणतनुं विशुद्धनागुत्तलं तत्प्रायोग्यजघन्यविशुद्धिविशिष्टनमधस्तनस्थितिनिषेकंगळोळपकर्षणविधानदिदमुपरितनपरमाणुगळं स्तोकंगळं प्रक्षेपिसुगुमुपरितननिषेकंगळोळुत्कर्षणविधानदिदमधस्तनपरमाणुगळं बहुकंगळं प्रक्षेपिसुगुमितु परिभ्रमिसि ऋजुगतिथिदमे बादरत्रसपर्याप्तकरोळ् पुट्टियुमल्लियुं तोळल्वंग पर्याप्तभवंगळ बहुकंगळपर्याप्तभवंगळु स्तोकंग पर्याप्ताद्धगळ्दोग्धंगळ पर्याप्ताद्धगळु हस्वंगळु । यदा यदायुर्बध्नाति तदा तदा तत्प्रायोग्यजघन्ययोगेन बघ्नाति इत्यादि १. पूर्वोक्तसर्वविशेषणविशिष्टनितु परिभ्रमिसियु पश्चिमभवग्रहगदोळेळनेय नरकद नारकरोल् पुट्टितद्भवग्रहणप्रथमसमयदोळु तत्प्रायोग्योत्कृष्टयोगदिंदमाहरिसियुत्कृष्टयोगवृद्धियिद वद्धितं सर्वलघुसर्वपर्याप्तिगळनंतम्र्मुहूर्त्तदोळ् नेरेदा नरकदोळु त्रयस्त्रिशत्सागरोपमकालं योगावश्यकम संक्लेशावश्यकमनस्दिदनितु परिभ्रमिसि जीवितव्यं स्तोकावशेषमागुत्तिरलु योगयवमध्यदमेगणभागदोळ्गंत. हीनकर्मस्थितिस्थितः तत्र भवस्थितिमनुपालयमानस्य स्तोकाः अपर्याप्तभवाः बहवः पर्याप्तभवाः दीर्घाः पर्याप्ताद्धाः ह्रस्वाः अपर्याप्ताद्धाः । यदा यदा आयुष्यं बध्नाति तदा तदा तत्प्रायोग्येन जघन्ययोगेन बध्नाति । उत्कृष्टयोगेनाहारितः उत्कृष्टवृद्धया वधितः बहुशो बहुशः उत्कृष्टयोगस्थानानि गतः जघन्ययोगस्थानानि न गतः बहुशो बहुशो बहुक्लेशपरिणामपरिणतः विशुध्यन् तत्प्रायोग्यविशुद्धया विशुध्यति । अधस्तनीनां निषेकस्य जघन्यपदं करोति । उपरितनीनां स्थितीनां निषेकस्य उत्कृष्टपदं करोति । एवं संसरित्वा बादरत्रसपर्याप्तकेषुत्पन्नः । तत्र च संसरमाणस्य बहवः पर्याप्तभवाः स्तोकाः अपर्याप्तभवा दीर्घाः पर्याप्ताद्धाः, ह्रस्वाः अपर्याप्ताद्धाः । एवं संसरित्वा पश्चिमे भवग्रहणे अधःसप्तमपृथ्वीनारकेषूत्पन्नः तद्भवग्रहणप्रथमसमये तत्प्रायोग्योत्कृष्टयोगेनाहारितः उत्कृष्टयोगवृद्धघा वर्धितः अन्तर्मुहूर्तेन सर्वलघुसर्वपर्याप्तिभिः प्राप्तः । तत्र नरके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमकालं योगावश्यकं संक्लेशावश्यकं च प्राप्तः । एवं परिभ्रम्य जीवितव्ये स्तोकावशेपे सति योगयव PA धारण किये और पर्याप्त भव बहुत धारण किये । अतः पर्याप्त काल बहुत हुआ और अपयोप्तकाल थोड़ा हुआ। जब-जब आयुबन्ध करता है, तब-तब उसके योग्य जघन्य योगसे २५ करता है। उत्कृष्ट योगसे आहारित और उत्कृष्ट वृद्धिसे वर्धित होता हुआ बहुत बार उत्कृष्ट योग स्थानोंको प्राप्त हुआ, जघन्ययोगस्थानोंको प्राप्त नहीं हुआ। बहुत बार बहुत संक्लेशरूप परिणामोंसे परिणत हुआ, विशुद्ध हुआ तो अपने योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता है। नीचेकी स्थितिके निषेकोंका जघन्यपद करता है और ऊपरकी स्थिति के निषेकोंका उत्कृष्ट पद करता है। इस प्रकार भ्रमण करके बादर-त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ भ्रमण ३० करते हुए पर्याप्तके भव बहुत धारण किये, अपर्याप्तके भव थोड़े धारण किये । पर्याप्तका काल बहुत हुआ, अपर्याप्तका काल थोड़ा हुआ। इस प्रकार भ्रमण करके अन्तिम भव ग्रहण करते समय सातवीं पृथ्वीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। उस भवको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे आहार ग्रहण किया, उत्कृष्ट योगकी वृद्धिसे बढा। सबसे लघु अन्तर्मुहूर्तमें सब पर्याप्तियोंको प्राप्त किया। उस नरकमें तैतीस सागर काल तक आवश्यक ३५ योग और आवश्यक संक्लेशको प्राप्त हुआ। इस प्रकार भ्रमण करके थोड़ी आयु शेष रहनेपर योगयवमध्यके ऊपरके भागमें अन्तर्मुहूर्त तक स्थित रहकर जीवयवमध्य रचनाकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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