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________________ ४०६ गो० जीवकाण्डे इंती प्रथमादिगुणहानिद्रव्यंगळ विशेषगळं निषेकंगळुमार्द्धक्रमंगळरियल्पडुवुवु । अनंतरमौदारिकादिसमयप्रबद्धंगळ्गे बंधोदयसत्वाऽवस्थयोळु द्रव्यप्रमाणमं पेळ्दपं: एक्कं समयपबद्धं बंधदि एक्कं उदेदि चरिमम्मि । गुणहाणीण दिवढं समयपबद्धं हवे सत्तं ॥२५४॥ एक समयप्रबद्धं बध्नाति एक उदेति चरमे । गुणहानीनां द्वयर्द्धः समयप्रबद्धः भवेत्सत्त्वं ॥ औदारिकादिशरीरंगळोळु तैजसकामणशरीरंगळ्गनादिसंबंधत्वर्दिद सर्वदा बंधोदयसत्त्वसंभवमप्पुरिदं जीवं मिथ्यादर्शनादिपरिणामनिमित्तकमप्प तैजसेयमुम कार्मणेयमुमं प्रतिसमयमेकैकसमयप्रबद्धमं बध्नाति तैजसशरीररूपतयुमं ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मस्वरूपतेयमनेयिदिसुगु। प्रतिसमयमेकैकसमयप्रबद्धमुमुदेति फलदानपरिणतेयिदं परिणमिसि स्वफलम कोटु तैजसशरीर१० रूपतेयुमं कर्मरूपतेयुमं त्यजिसि गलिसुगुम बुदत्थं । इत्येवं प्रथमादिगणहानिद्रव्याणि तद्विशेषनिषेकाश्च अधिक्रमा ज्ञातव्याः ॥२५३॥ अथौदारिकादिसमयप्रबद्धानां बन्धोदयसत्त्वावस्थायां द्रव्यप्रमाणं प्ररूपयति औदारिकादिशरीराणां मध्ये तैजसकामणशरीरयोरनादिसंबद्धत्वेन सर्वदा बन्धोदयसत्त्वसंभवात् जीवो मिथ्यादर्शनादिपरिणामनिमित्तं तेजसं कार्मणीयं च प्रतिसमयमेकैकं समयप्रबद्धं बध्नाति-तैजसशरीररूपतां १५ ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मरूपतां च नयति, प्रतिसमयमेकैकं समयप्रबद्धमुदेति च स्वफलदानपरिणत्या परिणम्य फलं दत्त्वा तैजसशरीररूपतां कार्मणरूपतां च त्यक्त्वा गलतीत्यर्थः । विवक्षितसमयप्रबद्धस्थितिचरमनिषके किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिगुणितसमयप्रबद्धमात्र सत्त्वद्रव्यं भवति, परमार्थतस्तु एतावत्सत्त्वद्रव्यं प्रतिसमयं संभवतीत्यर्थः । औदारिकवैक्रियिकशरीरसमयप्रबद्धानां विशेषोऽस्ति । स कः ? तच्छरीरद्वयग्रहणप्रथमसमयादारभ्य स्वायुश्चरमसमयपर्यन्तं शरीरनामकर्मोदयविशिष्टो जीवः प्रतिसमयमेकैकं तच्छरीरसमयप्रबद्धं बध्नाति २० प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य, चय आदि अपनी-अपनी पूर्व गुणहानिसे उत्तरोत्तर आधा-आधा होता जाता है । इसी तरह औदारिक आदिका भी जानना । किन्तु उनकी स्थितिमें आबाधाकाल नहीं होता,अतः अपनी स्थितिके प्रथम समयसे ही निषेक रचनाका क्रम चलता है। आगे औदारिक आदि समयप्रबद्धोंके बन्ध, उदय और सत्त्व अवस्थामें द्रव्यका प्रमाण कहते हैं औदारिक आदि पाँच शरीरोंमें तैजस और कार्मण शरीरका जीवके साथ अनादि सम्बन्ध होनेसे सर्वदा बन्ध, उदय और सत्त्व रहता है। अतः जीव मिथ्यादर्शन आदि परिणामके निमित्तसे प्रतिसमय तैजस और कार्मण सम्बन्धी एक-एक समयप्रबद्धको बाँधता है। अर्थात् पुद्गलवर्गणाओंको तैजस शरीररूप और ज्ञानावरण आदि आठ कर्मरूप परिण माता है। प्रति समय एक-एक समयप्रबद्धका उदय होता है और अपने फल देने रूप ३० परिणतिसे परिणमन करके फल देकर तैजस शरीररूपता और कार्मणरूपताको छोड़कर निर्जीर्ण होते हैं । विवक्षित समयप्रबद्धकी स्थितिके अन्तिम निषेकमें कुछ कम डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रव्य सत्तामें रहता है। परमार्थसे तो इतने द्रव्यकी सत्ता प्रतिसमय रहती है। औदारिक और वैक्रियिक शरीरके समयप्रबद्धोंमें कुछ विशेषता है। उन दोनों शरीरोंके ग्रहणके प्रथम समयसे लेकर अपनी आयुके अन्तिम समय पर्यन्त शरीरनामकर्मके ३५ उदयसे विशिष्ट जीव प्रतिसमय उस शरीरका एक-एक समयप्रबद्ध बाँधता है अर्थात् उस समयप्रबद्धको औदारिक या वैक्रियिक शरीररूपसे परिणमाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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