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गोम्मटसार जीवकाण्ड
गोम्मटसार-पीठिका ____ भाषाटीकाकार स्वर्गीय पं. टोडरमलजी ने गोम्मटसार की भाषा टीका से पूर्व में पीठिका निबद्ध की है जो गोम्मटसार के अध्येताओं के लिए उपयोगी है। अतः उसके आवश्यक अंशों का सार यहाँ दिया जाता है। __मैं मन्दबुद्धि हूँ, विशेष ज्ञानरहित हूँ, अविवेकी हूँ, शब्द-न्याय-गणित-धार्मिक आदि ग्रन्थों का विशेष अभ्यास मेरे नहीं है, तथापि धर्मानुरागवश टीका करने का विचार किया है। सो इसमें जहाँ-जहाँ चूक हो, अन्यथा अर्थ हो, वहाँ-वहाँ मुझे क्षमा करके उस अन्यथा अर्थ के स्थान में यथार्थ अर्थ लिखना, ऐसी विनय है।
कोई कहता है कि तुमने टीका करने का विचार तो भला किया। परन्तु ऐसे महान ग्रन्थ की टीका तो संस्कृत में ही चाहिए, भाषा में उसकी गम्भीरता प्रकट नहीं होती। उसको कहते हैं-इस ग्रन्थ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका तो पहले से ही है। परन्तु जो संस्कृत-गणित-आम्नाय आदि के ज्ञान से रहित मन्दबद्धि हैं, उनका उसमें प्रवेश नहीं है। और यहाँ कालदोष से बुद्धि आदि के तुच्छ होने से संस्कृत आदि के ज्ञान से रहित जीव बहुत हैं। उनको इस ग्रन्थ के अर्थ का ज्ञान कराने के लिए भाषाटीका करते हैं। जो जीव संस्कृत विशेष ज्ञान से यक्त है, वे मलग्रन्थ अथवा संस्कृत टीका से अर्थ धारण कर सकते हैं। किन्तु जो जीव संस्कृत आदि के विशेष ज्ञान से रहित हैं, वे इस भाषाटीका से अर्थ का अवधारण करें। तथा जो जीव संस्कृत आदि के ज्ञान से सम्पन्न हैं परन्तु गणित, आम्नाय, आदि के ज्ञान का अभाव होने से मूल ग्रन्थ अथवा संस्कृत टीका में प्रवेश करने में असमर्थ हैं, वे इस भाषाटीका से अर्थ की धारणा करके मूलग्रन्थ अथवा संस्कृत टीका में प्रवेश करें।
पूर्व में अर्धमागधी भाषा में महान् ग्रन्थ थे। जब बुद्धि की मन्दता हुई, तब संस्कृत आदि भाषा में ग्रन्थ बने। अब विशेष बुद्धि की मन्दता होने से देशभाषा में ग्रन्थ रचने का विचार हुआ। भाषा के द्वारा संस्कृत आदि का अर्थ लिखने में तो कुछ दोष नहीं है।
अब इस शास्त्र के अभ्यास में जीवों को प्रेरित करते हैं
हे भव्यजीवो! तुम अपना हित चाहते हो, तो तुम्हें जैसे बने तैसे इस शास्त्र का अभ्यास करना चाहिए; क्योंकि आत्मा का हित मोक्ष है। मोक्ष के सिवाय अन्य जो कुछ है, वह सब परसंयोगजनित है, विनाशीक है, दुःखमय है। किन्तु मोक्ष निज स्वभाव है, अविनाशी है, अनन्त सुखमय है। अतः तुम्हें मोक्षपद पाने का उपाय करना चाहिए। मोक्ष के उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं। और इनकी प्राप्ति जीवादि का स्वरूप जानने से ही होती है। क्योंकि जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है। किन्तु बिना जाने श्रद्धान का होना असम्भव है। अतः पहले जाने, पीछे वैसी ही प्रतीति होने से श्रद्धान होता है। श्रद्धान होने पर जो जीवादि का जानना होता है, उसी का नाम सम्यग्ज्ञान है। तथा श्रद्धानपूर्वक जीवादि को जानकर स्वयं ही उदासीन हो, हेय को त्यागे और उपादेय को ग्रहण करे, तब सम्यक्चारित्र होता है। अज्ञानपूर्वक क्रियाकाण्ड से सम्यकुचारित्र नहीं होता। इस प्रकार जीवादि को जानने से ही मोक्ष के उपाय सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति का निश्चय करना। सो इस शास्त्र के अभ्यास से जीवादि का जानना उत्तम रीति से होता है। क्योंकि संसार जीव और कर्म का सम्बन्ध रूप है। विशेष जानने से इनके सम्बन्ध का जो अभाव होता है, वही मोक्ष है। सो इस शास्त्र में जीव और कर्म का ही विशेष निरूपण है। अथवा जीवादि छह द्रव्यों और सात तत्त्वों का भी इसमें उत्तम निरूपण है। अतः इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना।
कोई-कोई इस शास्त्र में अरुचि होने के कारण विपरीत विचार प्रकट करते हैं। वे प्रथमानुयोग अथवा धरणानयोग अथवा द्रव्यानयोग का पक्ष लेकर इस करणानयोगरूप शास्त्र के अभ्यास का निषेध करते हैं।
प्रथमानुयोग के पक्षपाती कुछ मन्दबुद्धि कहते हैं कि इस गोम्मटसार'शास्त्र में गणित की कठिन समस्या सुनी जाती है। हम कैसे इसमें प्रवेश करें? उनसे कहते हैं कि डरो मत, इस भाषा टीका में गणित आदि का अर्थ सुगम रूप से कहा है। अतः उसमें प्रवेश करना कठिन नहीं रहा। तथा इस शास्त्र में कहीं सामान्य कथन
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