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प्रस्तावना
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ही शरण लेनी पड़ी। उस समय में उन्होंने अपने बुद्धि-वैभव से संस्कृत टीका के गूढ़ विषयों को कितनी स्पष्टता से खोलकर सरल रूप से लिखा है. यह हम लिखने में असमर्थ हैं। यद्यपि वे श्रावक थे. किन्त आचार्य कोटि के समकक्ष थे; इसमें सन्देह नहीं। उनकी परमार्थ बुद्धि अद्भुत थी। स्वाध्याय करनेवालों को सरलता से विषय का बोध हो, यही उनकी भावना रही है। जैन ग्रन्थकार जैसे मन्दकषायी, निरभिमानी और वीतरागी होते थे, टोडरमलजी उसके उदाहरण हैं। इस टीका को लिखते समय हमें उनकी गुणगरिमा का स्मरण पद-पद पर होता है। और हम मन ही मन उनको प्रणाम करते हैं। यदि उन्होंने यह टीका न लिखी होती, तो गोम्मटसार का पठन-पाठन ही प्रचलित न होता। इसी टीका को पढ़कर गुरुवर्य पण्डित गोपालदासजी वरैया गोम्मटसार के ज्ञाता बने और उनकी शिष्यपरम्परा प्रवर्तित हई। धन्य हैं पं. टोडरमलजी। गोम्मटसार और त्रिलोकसार का रहस्य भाषा में उद्घाटित करके उन्होंने महान् उपकार किया है, और मोक्षमार्ग-प्रकाश की रचना करके तथा उसमें निश्चयाभासी और व्यवहाराभासी का स्वरूप अंकित करके तो उन्होंने अपनी कृति पर कलशारोहण कर दिया है।
यही कारण है कि उस समय के विद्वानों और तत्त्व-जिज्ञासुओं ने उनकी विद्वत्ता की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। जिन साधर्मी राजमल की प्रेरणा से उन्होंने गोम्मटसार की टीका लिखी। उन्होंने अपनी पत्रिका में गोम्मटसार की टीका की रचना का पूरा इतिवृत्त दिया है। उसे यहाँ हम उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर देना उचित समझते हैं
टोडरमल्लजी तूं मिले, नाना प्रकार के प्रश्न किये, ताका उत्तर एक गोम्मटसार नामा ग्रन्थ की साखि सू देते भये। ता ग्रन्थ की महिमा हम पूर्वे सुणी थी, तासूं विशेष देखी। अर टोडरमल्लजी का ज्ञान की महिमा अद्भुत देखी।
___ पीछे उनसूं हम कही-तुम्हारै या ग्रन्थ का परचै निर्मल भया है। तुम करि याकी भाषा टीका होय तो घणां जीवां का कल्याण होइ अर जिनधर्म का उद्योत होई। तब शुभ दिन मुहूर्त विषै टीका करने का प्रारंभ सिंघाणा नग्र विषै भया। सो वै तो टीका बणावते गये, हम बांचते गये। बरस तीन मैं गोम्मटसार ग्रन्थ की अड़तीस हजार ३८०००, लब्धिसार क्षपणासार ग्रन्थ की तेरह हजार १३०००, त्रिलोकसार ग्रन्थ की चौदह हजार १४००० सब मिली चारि ग्रन्थां की पैंसठ हजार टीका भई।
अवार के अनिष्ट काल विषै टोडरमल्लजी कै ज्ञान का क्षयोपशम विशेष भया। पं. टोडरमलजी ने भी अपनी प्रशस्ति में उनके सम्बन्ध में लिखा है
'राजमल्ल साधर्मी एक, जाके घट में प्रगट विवेक
सो नाना विधि प्रेरक भयो, तब यहु उत्तम कारज थयो' । इन्द्रध्वजविधान-पत्रिका में भी लिखा है
'यहाँ सभा विषै गोमट्टसारजी का व्याख्यान होय है सो बरस दोय तौ हुआ अर बरस दोय ताई और होइगा, एह व्याख्यान टोडरमल्लजी करै हैं।' यह विधान वि. सं. १८२१ में हुआ था।
'सिद्धान्तसारसंग्रह' वचनिका प्रशस्ति में पं. देवीदास गोधा ने पं. टोडरमलजी के अनेक विशेष श्रोताओं का नामोल्लेख किया है। उस समय के विशिष्ट विद्वान् पं. जयचन्द छावड़ा ने अपनी सर्वाथसिद्धि वचनिका की प्रशस्ति में तथा पं. भूधरदासजी कृत चर्चासमाधान में पं. टोडरमलजी का उल्लेख बहुमानपूर्वक किया गया है। इस तरह पं. टोडरमलजी इस युग के एक महान भाषा टीकाकार हुए हैं। पण्डितजी ने अपनी टीका के प्रारम्भ में एक पीठिका भी दी है जो गोम्मटसार के पाठकों के लिए उपयोगी है। उसका आवश्यक अंश हम यहाँ देकर इस प्रस्तावना को समाप्त करेंगे।
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