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________________ ३८४ गो० जीवकाण्डे सूच्यंगुलासंख्येयभागदिदं भक्तप्रमाणंगळप्पुवु । अनंतरं विस्रसोपचयस्वरूपमं पेळ्वपं । जोवादोणंतगुणा पडिपरमाणुम्मि विस्ससोपचया । जीवेण य समवेदा एक्केक्कं पडि समाणा हु ॥२४९।। जीवादनंतगुणा प्रतिपरमाणु विस्रसोपचयाः। जीवेन च समवेताः एकैकं प्रति समानाः खलु ॥ जीवराशियं नोडलुमनंतानंतगुणितमप्प विनसोपचयंगळुमुंपेन्दौदारिकादि कर्मनोकर्मपरमाणुगळोदो दरोळेकैकं प्रति समानसंख्यावच्छिन्नंगळु जीवप्रदेशंगळोडने समवेताः संबद्धाः संयुतंगळप्पुबु विनसा स्वभावेनैवात्मपरिणामनिरपेक्षतयैवोपचीयते । तत्तत्कर्मनोकर्मपरमाणुभागभाजितधनाङ्गुलप्रमितं औ स ६ तद्वर्गणावगाहनक्षेत्रं तस्यैव सूच्यङ्गुलासंख्येयभागप्रमाणम् । तद्व ६ एवं २२ aa १० वैक्रियिकाद्युत्तरोत्तरशरीराणामपि समयप्रबद्धतद्वर्गणावगाही पूर्वपूर्वतदवगाहनक्षेत्राभ्यां सूच्यङ्गुलासंख्येयभाग गुणहीनो गच्छतः । वै। स । स ६ २। २ a a तद्व ६ आ २।२ २ aaa । ।६ तद्व ६ ते । स २। २ २ २।२।२ २ aaaaaa ख ६ २।२।२२ aaaa का। स तद्व ६ २।२।२।२ २ aaaa a ख ख ६ तह ६ ॥२४८॥ अथ विस्रसोपचय - २।२।२।२ २ २।२।२।२ । २ २ | स्वरूपं प्ररूपa aaaaaaaaaa पति जीवराशितोऽनन्तानन्तगुणितविस्रसोपचयाः पूर्वोक्तौदारिकादिकर्मनोकर्मपरमाणुषु एकैकं प्रति समान१५ संख्यावच्छिन्नाः जीवप्रदेशः सह समवेताः संबद्धाः संयुक्ताः सन्ति । विस्रसा स्वभावेनैव आत्मपरिणामनिरपेक्ष तयैव उपचीयन्ते तत्तत्कर्मनोकर्मपरमाणुस्निग्धरूक्षत्वगुणेन स्कन्धतां प्रतिपद्यन्ते इति विस्रसोपचयाः कर्मनोकर्मगुणा हीन होती है। वही कहते हैं-औदारिक शरीरके समयप्रबद्धका अवगाहन क्षेत्र सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे भाजित घनांगुल प्रमाण है। और उसकी वर्गणाका अवगाहन क्षेत्र उसके भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार वैक्रियिक आदि उत्तरो२० त्तर शरीरोंके भी समयप्रबद्ध और उनकी वर्गणाओंकी अवगाहना पूर्व-पूर्व अवगाहन क्षेत्रसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गुणा हीन होती हैं। विशेषार्थ--वैक्रियिकके समयप्रबद्ध और वर्गणाकी अवगाहनाको सूच्यंगुलके असं. ख्यातवें भागसे गुणा करनेपर औदारिकके समयप्रबद्ध और वर्गणाकी अवगाहना होती है । और औदारिकके समयप्रबद्ध और वर्गणाकी अवगाहनाको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका २५ भाग देनेपर वैक्रियिक शरीरके समयप्रबद्ध और वर्गणाकी अवगाहना होती है। ऐसे ही सर्वत्र जानना ॥२४८।। आगे विस्रसोपचयका स्वरूप कहते हैं जीवराशिसे अनन्तानन्तगुणे विस्रसोपचय पूर्वोक्त औदारिक आदि कर्म और नोकर्मके परमाणुओंमें एक-एकके प्रति समान संख्याको लिये हुए जीवके प्रदेशोंके साथ सम्बद्ध हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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