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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ३६९ निमित्तत्वदिंदमुं तस्माद्योगात् आकृष्टकमनोकर्म परिणामरूपप्रयोजनदिदमुं औदारिककायक्कु पचारदि तद्योगत्वसिद्धियक कुं। अनंतर औदारिक मिश्रकाययोगमं पेळ्दपरु। ओरालिय उत्तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो ओरालियमिस्सजोगो सो ॥२३॥ औदारिकमुक्तात्थं विजानीहि मिश्र तु अपरिपूर्ण तत् । यस्तेन संप्रयोगः औदारिकमिश्रयोगः सः॥ प्रागुक्तलक्षणमप्पौदारिकशरीरमदु तानंतर्मुहूर्तपय्यंतमपूर्णमपर्याप्तमन्नवरं मिश्रमदितु पेळल्पटुदु । अपर्याप्तकालसंबंधिसमयत्रयसंभविकार्मणकाययोगाकृष्टकार्मणवर्गणा संयुक्तत्वविदं परमागमरूढियिदं मेणपर्याप्तमप्प शरीरं मिश्रबुदर्थमदु कारणदिदं औदारिककायमिश्रदोडने १० तदर्थमागि त्तिसुव यः संप्रयोगः आत्मंग कम्मनोकादानशक्तिप्रदेशपरिस्पंदसंयोगमद शरीरपर्याप्तिनिष्पत्यभावदिदं औदारिकवर्गणास्कंधंगळ्गे परिपूर्णशरीरपरिणमनसमर्थमपुदौदारिककायमिश्रयोग दितु विजानीहि अरि। जानीहि इति संबोध्यते । अथवा औदारिककाय एव औदारिककाययोग इति कारणे कार्योपचारात् । अयमपचारोऽपि निमित्तप्रयोजनवानेव । औदारिककायाद् योगः औदारिककाययोग इति निमित्तस्य तद्योगाकृष्ट- १५ कर्मनोकर्मपरिणामरूपप्रयोजनस्य च भावात् ॥२३०॥ अथ तस्मिन्मिश्रयोगं प्ररूपयति प्रागुक्तलक्षणमौदारिकशरीरं तदेवान्तर्मुहूर्तपर्यन्तमपूर्ण अपर्याप्तं तावन्मिश्रमित्युच्यते । अपर्याप्तकालसंबन्धिसमयत्रयसंभविकार्मणकाययोगाकृष्टकार्मणवर्गणासंयुक्तत्वेन परमागमरूढ्या वा अपर्याप्त-अपर्याप्तशरीरमिश्रमित्यर्थः। ततः कारणादौदारिककायमिश्रेण सह तदर्थं वर्तमानो यः संप्रयोगः आत्मनः कर्मनोकर्मादान औदारिककाययोग कहते हैं । ऐसी अवस्थामें औदारिकवर्गणाके स्कन्धोंका औदारिककायरूप २० परिणमनमें कारण जो आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द है, वह औदारिककाययोग है; ऐसा हे भव्य, तू जान । अथवा कारणमें कार्यका उपचार करनेसे औदारिककाय ही औदारिककाय योग है । यह उपचार भी निमित्त और प्रयोजनको लिये हुए है । औदारिककायसे योग होता है, इसलिए औदारिककाययोग है, यह तो निमित्त हुआ और उस योगके द्वारा आकृष्ट पुद्गलोंका कर्म नोकर्मरूपसे परिणमन होता है। यह प्रयोजन हुआ॥२३०॥ ___ आगे औदारिकमिश्रकाय योगको कहते हैं औदारिक शरीरका लक्षण पहले कहा है। वही अन्तर्मुहूर्त काल तक अपूर्ण अर्थात् अपर्याप्त होता है,तब उसको औदारिक मिश्र कहते हैं। अपर्याप्तकाल सम्बन्धी शतके ती समयोंमें होनेवाले कार्मणकाय योगसे आकृष्ट कार्मणवर्गणासे संयुक्त होनेसे औदारिक मिश्र कहते हैं । अर्थात् मिश्रनाम मेलका है । सो जब जीव पूर्व शरीरको छोड़कर नया शरीर ३० धारण करने के लिए विग्रहगतिसे गमन करता है, तब अधिकसे अधिक तीन समय तक उसके कार्मणकाय योग होता है। उससे कार्मण वर्गणाओंका ग्रहण होता है। इस तरह कार्मण और औदारिक वर्गणाका मेल होनेसे अपर्याप्त अवस्थामें औदारिकको ही औदारिक मिश्र कहा जाता है । अथवा परमागममें ऐसा रूढ़ है कि अपर्याप्त शरीर मिश्र होता है। इस कारणसे औदारिककायमिश्रके साथ उसके लिए वर्तमान जो संप्रयोग अर्थात् आत्माका कर्म और १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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