SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५० मदु कारर्णादिदमीयधिकाधिकार्द्धच्छेदप्रमितद्विकान्योन्याभ्यास संभूता संख्यातलोर्कादिदं बादरतेजस्कायिकजीवराशियं नोडलु गुणितक्रमंगळपुविन्नवरेधिकार्द्धच्छेदप्रमित द्विकान्योन्याभ्यास संभूतासंख्यातलोकोत्पत्तिक्रमं तोरल्पडुगुं अदेते दोर्ड :- मोदलोळन्ने वर मंकसंदृष्टियिदं तोरपडुगुं । तस्मात्ते राशिका असंख्यातलोकेन गुणितक्रमाः एंदितु पेव्दरप्पुदरिनिल्लि त्रैराशिक माडल्पडुगु । षोडश द्विकान्योन्याभ्यासविरलनराशिगे येत्तलानुं पण्णट्ठि राशि पडेयल्बरुत्तिरलुमागलु चतुः षष्टि द्विकान्योन्याभ्यासविरलनराशि तप्प राशि पडेयल्पडुगुमेदितु प्रमाण फल इच्छाराशिगळं माडि प्र विदे २ प इष्ट ६५ = इ । वि दे २ । ६४ लब्धानयनविधानदो विशेषकरणसूत्रदावुदे दो ५ १६ अधिकाः सन्ति ततः कारणात् तत्तदधिकप्रमिततद्विकान्योन्याभ्यास संभूता संख्यातलोकेन ते जीवराशयो १० गुणितक्रमा भवन्ति । तदसंख्यातलोकोत्पत्तिक्रमः अङ्कसंदृष्ट्यर्थ संदृष्टिभ्यां दर्श्यते तत्राङ्कसंदृष्ट्या यथा-षोडशद्विकान्योन्याभ्यासे यदि पट्टिराशिलभ्यते तदा चतुःषष्टिद्विकान्योन्याभ्यासे को राशिलभ्यते इति प्रमाणफलेच्छाराशीन् कृत्वा लब्धानयने करणसूत्रमाह अर्धच्छेदों का अधिक प्रमाण कहा है, उतने उतने दुए रखकर परस्पर में गुणा करनेसे जो १५ यथासम्भव असंख्यात लोक मात्र प्रमाण होता है, उतने प्रमाण वे जीवराशियाँ क्रमसे गुणित होती हैं । यहाँ असंख्यात लोककी उत्पत्तिका क्रम अंकसंदृष्टिसे दिखाते हैं - जैसे यदि सोलह जगह दो-दोके अंक रखकर परस्पर में गुणा करनेपर पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस लब्ध आता है, तो चौंसठ जगह दुए रखकर परस्पर में गुणा करनेसे क्या राशि प्राप्त होगी। इस प्रकार प्रमाणराशि १६, फलराशि पण्णट्टी और इच्छाराशि ६४ रखकर फलसे इच्छाराशिको २० गुणा करके प्रमाणराशि से भाग देनेपर लब्धका प्रमाण आता है। २५ विशेषार्थ- पं. टोडरमलजीने अपनी टीकामें इसे अंकसंदृष्टि से स्पष्ट किया है । उसे यहाँ दिया जाता है । पल्यका प्रमाण है - ६५५३६ पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस । आचली के असंख्यातवें भागका प्रमाण है-आठ । सागरका प्रमाण है -छह लाख पचपन हजार तीन सौ साठ ६५५३६० | कल्पित पल्य पण्णट्ठीमें एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार और पाँच बार कल्पित आवलीकें असंख्यातवें भाग आठसे भाग देनेपर क्रमसे इक्यासी सौ बानबे ८१९२, एक हजार चौबीस १०२४, एक सौ अट्ठाईस १२८, सोलह १६ और दो २ आते हैं । ये क्रम आठ-आठ गुने घटते हुए हैं। इनको कल्पित सागर के प्रमाण छह लाख पचपन हजार तीन सौ साठ-से घटाइए । अन्तिममें कुछ भी नहीं घटाना; क्योंकि उसका प्रमाण पूर्ण सागर है । तब अग्निकायिक आदिकी अर्धच्छेद राशिका प्रमाण ६४७१६८, ६५४३३६, ६५५२३२, ६५५३४४, ६५५३५८ और ६५५३६० होता है । यहाँ अधिकका प्रमाण लानेके लिए पणट्ठीको सातसे गुणाकर दो, तीन, चार, पाँच बार आठका भाग देनेपर तथा अन्तमें एकसे गुणा करके पाँच बार आठका भाग देनेपर इकहत्तर सौ अड़सठ ७१६८, आठ सौ छियानबे ८९६, एक सौ बारह ११२, चौदह १४ और दो २ क्रमसे अधिकका प्रमाण आता है । इसी प्रकार यथार्थ में भी जानना । ३५१. ३० दे २ प्र । वि १६ । फ६५ = । इवि ६४ २ गो० जीवकाण्डे ० वर एका च्छेद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy