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________________ ३२४ गो० जीवकाण्डे ळिदमाहारिसल्पट्ट पुद्गलपिंडोपकारमीयोव्वंगमा अनंतानंतसाधारणजीवंगळ्ग मनुग्रहणं समासदिदं सपिडितत्वदिदमक्कुमोदु बादरनिगोदशरीरदोळ सूक्ष्मनिगोदशरीरदोळु मेणु यथासंख्यमागि पर्याप्तकंगळप्प बादरनिगोदजीवंगळु सूक्ष्मनिगोदजीवंगळं भवप्रथमसमयदोळुमनंतानंतंगळु पुटुववु। द्वितीयसमयदोळुमवं नोडलसंख्येयगुणहीनंगळु पुटुगुमितु निरंतरमावल्यसंख्यातैकभागकालपर्यंत प्रतिसमयमसंख्येयगुणहीनक्रमदिद पुटुवल्लिदं मेले जघन्यदिनोंदु समयमुत्कृष्टदिनावल्यसंख्येयभागमात्रकालमंतरिसि मतं जधन्यदिनोंदु समयमुत्कृष्टदिंदमावल्यसंख्येयभागमात्रकालं निरंतरमा निगोदशरीरदोळसंख्यातगुणहीनक्रमदिदं साधारणजीवंगळु पुटुवितु सांतनिरंतरक्रमाददमन्नंवर पूटट्रववन्तंवर प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवन सव्वंजघन्यमप्प निर्वृत्यपर्याप्तकालमवशेषमक्कुं ।२१। मत्तमा प्रथमादिसमयंगळोळुत्पन्नंगळप्प सर्वसाधारणजीवंगळाहारशरीरेंद्रियोच्छ्वासनिःश्वासपऱ्यांप्तिगळगे स्वस्वयोग्यकालदोळु निष्पत्तियक्कुं। अनंतरं बादरनिगोदशरीराधारप्रतिपादन माडिदपं । १० १५ जीवस्य कर्मादानशक्तिलक्षणयोगेन गहीतपदगलपिण्डोपकारोऽनन्तानन्तसाधारणजीवानां तस्य चानुग्रहणं भवति । पुनरपि अनन्तानन्तसाधारणजीवानां योगशक्तिभिः गृहीतपुद्गलपिण्डोपकारः एकस्य अनन्तानन्तसाधारणजीवानां चानुग्रहणं समासेन संपिण्डितत्वेन भवति । एकबादरनिगोदशरीरे सूक्ष्मनिगोदशरीरे वा यथासंख्यं पर्याप्ताः बादरनिगोदजीवाः सुक्ष्म निगोदजीवाश्च भवप्रथमसमये अनन्तानन्ता उत्पद्यन्ते। द्वितीयसमये तेभ्योऽसंख्येयगुणहीना उत्पद्यन्ते । एवं निरन्तरमावल्यसंख्येयभागकालपर्यन्तं प्रतिसमयमसंख्येयगुणहीनक्रमेणोत्पद्यन्ते । ततः परं जघन्येनैकसमयं उत्कृष्टेन आवल्यसंख्येयभागमात्रकालमन्तरयित्वा पुनरपि जघन्येनैकसमय उत्कृष्टेन आवल्यसंख्येयभागमात्रकालं निरन्तरं निगोदशरीरे असंख्यातगुणहीनक्रमेण साधारणजीवा उत्पद्यन्ते । एवं सान्तरनिरन्तरक्रमेण ता द्यन्ते यावत्प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवस्य सर्वजघन्यो निर्वृत्त्यपर्याप्तकालोऽव२० शिष्यते २१। पश्चात् तत्प्रथमादिसमयोत्पन्नसर्वसाधारणजीवानां आहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तीनां स्वस्वयोग्यकाले निष्पत्तिर्भवति ॥१९३॥ अथ बादरनिगोदशरीराधारं प्रतिपादयति द्वारा गृहीत पुद्गलपिण्ड अनन्तानन्त साधारण जीवोंका भी उपकारी होता है,उस जीवका भी उपकारी होता है। इसी तरह अनन्तानन्त साधारण जीवोंकी योगशक्तिके द्वारा गृहीत पुद्गल पिण्ड एक साथ संयुक्त रूपसे एक जीवका भी उपकारी है और अनन्तानन्त साधारण वोंका भी उपकारी होता है। एक बार निगोद शरीरमें अथवा सूक्ष्म निगोद शरीरमें यथाक्रम पर्याप्त बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव भवके प्रथम समयमें अनन्तानन्त उत्पन्न होते हैं। दूसरे समयमें उससे असंख्यातमुणा हीन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार निरन्तर आवलीके असंख्यातवें भाग काल पर्यन्त प्रतिसमय असंख्यात गुण हीन क्रमसे उत्पन्न होते हैं। उसके बाद जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र कालका ३० अन्तर देकर पुनः जघन्यसे एक समय और उत्कृष्ठसे आवलीके असंख्यात भाग मात्र काल तक निरन्तर निगोद शरीरमें असंख्यात गुण हीन क्रमसे साधारण जीवं उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार निरन्तर या सान्तरके क्रमसे निगोद शरीर में तबतक जीव उत्पन्न होते हैं जबतक प्रथम समयमें उत्पन्न साधारण जीवका सबसे जघन्य निर्वृत्यपर्याप्त काल शेष रहता है। तथा प्रथम समय आदिमें उत्पन्न सर्वसाधारण जीवोंकी आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, ३५ इन्द्रियपर्याप्ति और उच्छवासपर्याप्तिकी पूर्ति अपने-अपने योग्य कालमें होती है ॥१९३॥ आगे बादर निगोद शरीरोंका आधार बतलाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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