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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ३०३ णवि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिदियाणतणाणसुहा ॥१७४॥ नापोंद्रियकरणयुता अवग्रहादिभिाहका अर्थान् । नैव चैंद्रियसौख्याः अतींद्रियाऽनंतज्ञानसुखाः॥ इंद्रियकरणंगळिंदमुन्मीलनादिव्यापारंगळिद नियमदिद कूडिदरल्लरदुकारणदिदमवग्रहादि ५ क्षायोपशमिकज्ञानं गळिंदमर्थग्राहकरुमल्तु। इंद्रियविषयसंश्लेषजनितसुखमनुझळरुमल्तुमार्केलंबर्जीवंगळा जीवंगळु जिन; सिद्धरुगळुमोळरवर्गळुनिद्रियानंतज्ञानसुखमनुळळराज्ञानसुखंगळगे शुद्धात्मस्वरूपोपलब्धिसमुद्भूतमुटप्पुरिदं। अनंतरमेकेंद्रियादिगळ्गे सामादिदं संख्ययं पेळ्दपं । थावरसंखपिपीलियभमरमणुस्सादिगा सभेदा जे ।। जुगवारमसंखेज्जा ताणंता णिगोदभवा ॥१७५।। स्थावरशंखपिपीलिका भ्रमरमनुष्यादिकाः सभेदा ये। द्विकवारमसंख्येया अनंताअनंता निगोदभवाः॥ पृथ्व्यप्रेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिकायिकपंचस्थावरंगळप्पेकेंद्रियंगळं शंखादिद्वींद्रियंगळं पिपीलिकादित्रींद्रियंगळं भ्रमरादिचतुरिद्रियंगळु मनुष्यादिपंचेंद्रिययंगळिवु तंतम्मवांतरभेदसहितंगळ १५ परग पेळल्पटुववु प्रत्येकं द्विकवारासंख्यातंगळु । निगोदसाधारणवनस्पतिकायिकंगळनंतानंतंगळु। ये जीवा नियमेन इन्द्रियकरणैः-उन्मीलनादिव्यापारैः, युताः-युक्ता न सन्ति [ कस्मात् ? तेषामशरीरत्वात् तत्कारणजातिनामादिक भावाच्च ] । तथा च अवग्रहादिभिः-क्षायोपशमिकज्ञानरर्थग्राहका न भवन्ति । पुनः इन्द्रियविषयसंश्लेषजनितसुखयुता नैव सन्ति ते जिनसिद्धनामानो जीवा अनिन्द्रियानन्तज्ञानसुखकलिता भवन्ति । कस्मात् ? तज्ज्ञानसुखयोः शुद्धात्मस्वरूपोपलब्ध्युत्पन्नत्वात् ॥१७४॥ अथैकेन्द्रियादीनां सामान्य- २० संख्यामाह स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिकायिकनामानः पञ्चविधैकेन्द्रियाः । शङ्खादयो द्वीन्द्रियाः । पिपीलिकादयस्त्रीन्द्रियाः । भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः। मनुष्यादयः पञ्चेन्द्रियाश्च स्वस्वावान्तरभेदसहिताः प्राक् जो जीव नियमसे इन्द्रियोंके उन्मीलन आदि व्यापारसे युक्त नहीं हैं। क्योंकि वे अशरीरी हैं, उनके इन्द्रियव्यापारका कारण जातिनाम आदि कोका अभाव है, इसीसे २५ अवग्रह आदि क्षायोपशमिक ज्ञानोंके द्वारा पदार्थोंका ग्रहण नहीं करते। तथा इन्द्रिय और विषयके सम्बन्धसे होनेवाले सुखसे भी युक्त नहीं हैं; वे जिन और सिद्ध नामधारी जीव अतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान और सुखसे युक्त होते हैं क्योंकि उनका ज्ञान और सुख शुद्ध आत्मस्वरूपकी उपलब्धिसे उत्पन्न हुआ है ॥१७४।। आगे एकेन्द्रिय आदि जीवोंकी सामान्य संख्या कहते हैं स्थावर अर्थात् पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक नामवाले पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय, शंख आदि दोइन्द्रिय, पिपीलिका आदि तेइन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय, तथा मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय पहले कहे अपने-अपने १.[ एतदन्तर्गतः पाठः 'ब' प्रतौ नास्ति । २. तत एव च ब । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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