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गोम्मटसार जीवकाण्ड
गुणस्थानों में होता है। सूक्ष्म साम्पराय संयम एक सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में होता है। यथाख्यात संयम अन्त के चार गुणस्थानों में होता है। संयतासंयत एक संयतासंयत या देशसंयत गुणस्थान में ही होता है। असंयम एकेन्द्रिय से लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त होता है।
६. दर्शनमार्गणा-इसके चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन। चक्षु के द्वारा सामान्य पदार्थ के ग्रहण को चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष इन्द्रिय और मन से जो प्रतिभास होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। परमाण से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त मर्त पदार्थों के प्रत्यक्ष प्रतिभास को अवधिदर्शन कहते हैं। लोक-अलोक को प्रकाशित करनेवाला केवलदर्शन है जो केवलज्ञान के साथ होता है। शेष दर्शन ज्ञान से पूर्व होते हैं। चक्षुदर्शन चौइन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। अचक्षुदर्शन एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। अवधिदर्शन असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त
भंगदर्शन का अन्तर्भाव अवधिदर्शन में होता है। मनःपर्ययज्ञान मतिपूर्वक होता है, इसलिए मनःपर्यय दर्शन नहीं है।
केवलदर्शन सयोगकेवली, अयोगकेवली और सिद्धों के होता है।
१०. लेश्यामार्गणा-कषाय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कषाय का उदय छह प्रकार है-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम। अतः लेश्या भी छह हो जाती है-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। इनकी पहचान-तीव्र क्रोध का होना, वैर को न छोड़ना, धर्म और दया से रहित होना, मन्द होना, विवेकहीन होना, पाँच इन्द्रियों के विषयों का लम्पटी होना, मानी
और मायावी होना कृष्णलेश्यावाले के लक्षण हैं। अतिनिद्रालु होना, दूसरों को ठगने में दक्ष होना, धनधान्य में तीव्र लालसा का होना, नीललेश्यावाले के लक्षण हैं। दूसरों पर क्रोध करना, निन्दा करना, उन्हें दुःख देना, उन पर दोष लगाना, उनका विश्वास नहीं करना, अपनी स्तुति सुनकर सन्तुष्ट होना, युद्ध में मरने की चाहना होना, कार्य-अकार्य को न देखना कापोतलेश्यावाले के लक्षण हैं।
जो कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को जानता है, समदर्शी है, दया-दान में तत्पर है, कोमल परिणामी है वह पीतलेश्यावाला है। त्यागी, भद्रपरिणामी, निर्मल, कार्य करने में उद्यत होना, गुरुजनों की पूजा में रत होना पद्मलेश्यावाले के लक्षण हैं।
पक्षपात नहीं करना, निदान नहीं बाँधना, सबके साथ समान व्यवहार करना, इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना शुक्ललेश्यावाले के लक्षण हैं।
कृष्ण, नील, कापोतलेश्या एकेन्द्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त होती है। पीत और पद्मलेश्या संज्ञीमिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान पर्यन्त होती है। शुक्ललेश्या संज्ञीमिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त होती है। तेरहवें गुणस्थान से आगे सभी जीव लेश्यारहित होते हैं।
११. भव्यत्वमार्गणा-जिन्हें आगे मुक्ति प्राप्त होगी, उन्हें भव्य कहते हैं। उनके चौदहों गुणस्थान होते हैं। अभव्य के केवल एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है। भव्यत्व और अभव्यत्वभाव कर्मजन्य नहीं है, स्वाभाविक है।
१२. सम्यक्त्वमार्गणा-जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्यों, पाँच अस्तिकायों और नौ पदार्थों के श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-दर्शनमोहनीय के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है। यह सम्यक्त्व श्रद्धान को भ्रष्ट करनेवाले वचनों से, युक्तियों से, भयकारक रूपों से, अधिक क्या तीनों लोकों से भी श्रद्धान से विचलित नहीं होता।
सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति का उदय रहते हुए पदार्थों का जो चल, मलिन और अगाढ़दोष से युक्त श्रद्धान होता है, वह वेदक सम्यक्त्व है। दर्शन मोह के उपशम से कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह उपशम-सम्यग्दर्शन है।
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