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प्रस्तावना
माया के चार प्रकार हैं-बाँस की जड़, मेढ़े के सींग, बैल का मूतना और खुरपा के समान। जैसे इनमें टेढ़ापन अधिक-कम होता है; वही स्थिति माया की है।
लोभ के चार प्रकार हैं-कृमिराग के समान, गाड़ी के चक्के के मल के समान, शरीर के मल के समान और हल्दी के रंग के समान। जैसे-जैसे इनका रंग गाढ़ा-हल्का होता है, वैसे ही लोभ भी होता है।
क्रोध, मान, माया, कषाय, एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्ति, गुणस्थान पर्यन्त होती हैं। लोभकषाय सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त होती है। अन्त के शेष चार गुणस्थान कषाय रहित हैं।
७. ज्ञानमार्गणा-इसके आठ भेद हैं-मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी। जो जानता है, उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञान दो प्रकार का है-प्रत्यक्ष
और परोक्ष। परोक्ष के दो भेद हैं-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। पाँच इन्द्रियों और मन से जो पदार्थ का ग्रहण होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञानपूर्वक जो विशेष ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। जो श्रुतज्ञान शब्द के निमित्त से होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक होता है, उसके दो भेद हैं-अंग श्रुत और अंगबाह्य। अंगश्रुत के बारह भेद हैं और अंगबाह्य के चौदह भेद हैं। जीवकाण्ड में श्रतज्ञान के भेदों का विस्तार से कथन ज्ञानम में है। इन्द्रियों से होनेवाले मिथ्यात्व सहित ज्ञान को मति अज्ञान कहते हैं और उस पूर्वक होनेवाले विशेष ज्ञान को श्रुत-अज्ञान कहते हैं। और मिथ्यात्व सहित अवधिज्ञान को विभंग कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान । सम्पूर्ण मूर्त पदार्थों को इन्द्रियादि की सहायता के बिना साक्षात् जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। तथा देशावधि, परमावधि, सर्वावधि भेद विषयों को जानने की अपेक्षा से हैं। मन का आश्रय लेकर मनोगत विचारों को साक्षात् जाननेवाले ज्ञान को मनःपर्यय कहते हैं। अर्थात् जिसका भूतकाल में चिन्तवन किया है, अथवा भविष्यकाल में चिन्तवन होगा, अथवा जो अर्धचिन्तित है, इत्यादि अनेक भेद रूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जो जानता है, वह मनःपर्ययज्ञान है। त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को साक्षात् जाननेवाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। एकेन्द्रिय से सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी जीव होते हैं। विभंगज्ञान संज्ञीमिथ्यादृष्टि जीवों के तथा सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है। सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आदि के तीनों ही ज्ञान-अज्ञान से मिश्रित होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, ये तीनों असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। मनःपर्ययज्ञान प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। केवलज्ञान सयोगकेवली, अयोगकेवली और सिद्धों में होता है।
८. संयममार्गणा-इसके भेद इस प्रकार हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात, संयतासंयत और असंयत। मैं सभी प्रकार के सावद्ययोग का त्याग करता हूँ-इस प्रकार सर्वसावद्ययोग के त्याग को सामायिक संयम कहते हैं। उस एक व्रत को छेद करके अर्थात दो-तीन आदि भेद करके व्रतों के धारण करने को छेदोपस्थापना संयम कहते हैं। तीस वर्ष तक इच्छानुसार भोग भोगकर सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम को धारण करके प्रत्याख्यान पूर्व में पारंगत होकर जिसने तपोविशेष से परिहार ऋद्धि को प्राप्त कर लिया है, ऐसा जीव तीर्थंकर के पादमूल में परिहार विशुद्धि संयम को धारण करता है। इस प्रकार संयम को धारण करके जो उठना-बैठना, भोजन करना, आदि सब व्यापारों में प्राणियों की हिंसा के परिहार में दक्ष होता है, उसके परिहार विशुद्धि संयम होता है। अब साम्पराय कषाय को कहते हैं। जिसकी कषाय सूक्ष्म हो गयी है, उसे सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापना संयम को धारण करनेवाले साधु जब अत्यन्त सूक्ष्म कषायवाले हो जाते हैं, तब उनके सूक्ष्म साम्पराय संयम होता है। सम्पूर्ण कषायों का अभाव होने पर यथाख्यात संयम होता है।
प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगकेवलीपर्यन्त सब मनुष्य संयमी होते हैं। सामायिक और छेदोस्थापना प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिगुणस्थान पर्यन्त होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्तसंयत-अप्रमत्तसंयत दो
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