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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २९५ ग्रहणशक्तियक्कुमर्थग्रहणव्यापारमुपयोगमक्कं । प्रत्यक्षनिरतानोंद्रियाणि । अक्षाणींद्रियाणि अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं। विषयोऽक्षजो बोधो वा तत्र निरतानि व्यापतानोंद्रियांणि। विशेषाभावात्तेषां संकरव्यतिकररूपेण व्यापृतिःप्राप्नोतीति चेन्न प्रत्यक्षे नियमिते रतानिति प्रतिपादनात् संकरव्यतिकरदोषनिवारणाय । स्वविषयनिरतानोंद्रियाणीति वा वक्तव्यं । स्वेषां विषयः स्वविषयस्तत्र नि निश्चयेन निर्णयेन रतानोंद्रियाणि स्वविषयनिरतानोंद्रियाणि । संशयविपर्यासावस्थायां ५ निर्णयात्मकरतेरभावात्तत्रात्मनोऽनिद्रियत्वं स्यादिति चेन्न रूढिबलादुभयत्र प्रवृत्त्यविरोधः। ____ अथवा स्ववृत्तिनिरतानोंद्रियाणि । संशयविपर्यायनिर्णयादौ वर्तनं वृत्तिस्तस्यां स्ववृत्तौ रतानोंद्रियाणि । निर्व्यापारावस्थायानिद्रियव्यपदेशः स्यादिति चेन्न दत्तोत्तरत्वात् । २० भिद्यते । तत्र लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियमिति, अर्थग्रहणशक्तिलब्धिः अर्थग्रहणव्यापार उपयोगः । 'प्रत्यक्षनिरतानीन्द्रियाणि' अक्षाणि इन्द्रियाणि, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं विषयः, अक्षबोधो वा । तत्र निरतानि १० व्यापतानीन्द्रियाणि । विशेषाभावात्तेषां संकरव्यतिकररूपेण व्यापतिः प्राप्नोति ? इति चेन्न, प्रत्यक्ष नियमिते रतानीति प्रतिपादनात । संकरव्यतिकरदोष निवारणाय स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणीति वा वक्तव्यम। स्वेषां विषयः स्वविषयः, तत्र निश्चयेन निर्णयेन रतानीन्द्रियाणि स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणि । संशयविपर्यासावस्थायां निर्णयात्मकरतेरभावात तत्र आत्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यात् ? इति चेन्न रूढिबलादुभयत्र प्रवृत्त्यविरोधः । अथवा 'स्ववृत्तिनिरतानीन्द्रियाणि' संशयविपर्ययनिर्णयादो वर्तनं-वृत्तिः तस्यां स्ववृत्ती निरतानीन्द्रियाणि । १५ ग्रहण करनेका व्यापार उपयोग है। इन्द्रिय शब्दकी आगममें विविध निरुक्ति मिलती है, उसे कहते हैं 'प्रत्यक्ष निरतानि इन्द्रियाणि'-अक्ष अर्थात् इन्द्रिय । अक्ष अक्ष प्रति जो प्रवृत्त हो, वह प्रत्यक्ष है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ विषय और इन्द्रियजन्य ज्ञान दोनों होता है । उसमें जो निरत अर्थात् व्यापारयुक्त है,वह इन्द्रिय है। . शंका-इस व्युत्पत्तिके अनुसार तो कोई भेद न होनेसे संकर और व्यतिकर रूपमें भी इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति प्राप्त होती है अर्थात् एक ही विषयमें सब इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति हो सकेगी। यह संकर है। या जिस विषयको रसना जान सकती है, उसे घ्राण जान सकेगी और घ्राणके विषयमें रसनाकी प्रवृत्ति हो सकेगी-यह व्यतिकर है। समाधान-नहीं, क्योंकि नियमित प्रत्यक्ष में जो रत है,वह निरत है;ऐसा निरत शब्द- २५ का अर्थ कहा है। अथवा संकर व्यतिकर दोषको निवारण करने के लिए स्वविषा न्द्रियाणि' ऐसा कहना चाहिए। स्वविषय अर्थात् अपने-अपने विषयमें निश्चय रूपसे या निर्णयात्मक रूपसे रत इन्द्रियाँ स्वविषयनिरत इन्द्रियाँ हैं। शंका-संशय और विपर्ययकी अवस्थामें निर्णयात्मक रतिका अभाव होनेसे आत्माको अनिन्द्रियपना प्राप्त होगा। समाधान नहीं प्राप्त होता; क्योंकि रूढिके बलसे दोनोंमें प्रवृत्ति होनेमें विरोध नहीं है अथवा 'स्ववृत्तिनिरतानीन्द्रियाणि' ऐसा कहना चाहिए। संशय, विपर्यय, निर्णय आदिमें प्रवृत्ति करना वृत्ति है । उस अपनी वृत्तिमें निरत इन्द्रियाँ हैं। शंका-यदि इन्द्रिय अपने विषयमें प्रवृत्त न होकर निर्व्यापार रहे, तो वह उस अवस्थामें अनिन्द्रिय कहलायेगी ? १. रूपं चि-ब। २. निर्णयेन रतानीन्द्रियाणि सं-ब । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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