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कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका
२८७ 'साधूरराज कीर्तेरेणांको भारती विलोलः समधिः ।
गुणवर्ग धर्मनिगलितसंख्यावन्मानवेषु वर्णक्रमतः॥' एंदितु पर्याप्तमनुष्यर संख्ययं पेळल्प टुदु।। ५१४२६४३, ३७५९३५४, ३९५०३३६ । अयमेव राशिः पुनरक्षरसंख्यया पूर्वानुपूर्व्या कथ्यतेपर्याप्त मनुष्योंकी संख्या है । इसी राशिको पूर्वानुपूर्वीसे अक्षरों की संख्याके द्वारा दूसरे रूपमें ५ कहा गया है।
विशेषार्थ-इस गाथामें पर्याप्त मनुष्यों की संख्या अक्षरोंके द्वारा अंकोंको सूचित करते हुए बायीं ओरसे कही है। अक्षरोंके द्वारा अंक कहनेका सूत्र इस प्रकार है
कटपयपुरस्थवर्णनवनवपञ्चाष्टकल्पितैः क्रमशः।
स्वरमनशून्यं संख्या मात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् ।। इसका अर्थ इस प्रकार है-ककारसे लेकर नौ अक्षरोंसे क्रमसे एकसे लेकर नौ तक अंक जानना । टकारसे लेकर धकार पर्यन्त नौ अक्षरोंसे क्रमसे एकसे लेकर नौ तक अंक जानना । इसी तरह पकारसे लेकर मकार तक पाँच अक्षरोंसे क्रमसे एकसे लेकर पाँच तक जानना । यकारसे लेकर हकार पर्यन्त आठ अक्षरोंसे क्रमसे एकसे लेकर आठ तक अंक जानना । जहाँ स्वर या बकार या नकार लिखा हो,वहाँ शून्य (बिन्दी) जानना। अक्षरपर १५ लगी मात्रा या ऊपर लिखे अक्षरसे कुछ प्रयोजन नहीं है। इस सूत्र के अनुसार यहाँ अक्षरोंके द्वारा अंक कहे हैं। 'त' से छह, 'ल' से तीन, 'ली' से तीन, 'न' से शून्य, 'म' से पाँच, धु से नौ, ग से तीन, वि से चार, 'म' से पाँच, 'लं' से तीन, घू से नौ, म से पांच, सि से सात, ला से तीन, गा से तीन, वि से चार, चो से छह, र से दो, भ से चार, य से एक, म से पाँच, रु से दो, तसे छह, ट से एक, ह से आठ, रिसे दो, ख से दो, झसे नौ, स से सात । २० अंकोंको बायीं ओरसे लिखनेपर उक्त संख्या होती है। इन्हीं अंकोंको एक श्लोकमें जो ऊपर टीकाकारने अपनी टीकामें दिया है। अक्षरोंके द्वारा दाहिनी ओरसे कहा है-'सा से सात, धु से नौ, र से दो, रा से दो, ज से आठ, की से एक, र्ते से छह, रे से दो, णां से पाँच, को से एक, भा से चार, र से दो, ती से एक, वि से चार, लो से दो, ल से दो, स से सात, म से पांच, धी से नौ, गु से तीन, ण से पाँच, 'व' से चार, र्ग से तीन, ध से नौ, म से पाँच, २५ नि से शून्य, ग से तीन, लि से तीन, त से छह । इस गाथाकी मन्द प्रबोधिनी टीकामें 'किंचित् प्रकृतोपयोगी' लिखा है। उसका आशय यहाँ दिया जाता है-पैंतालीस लाख चौड़े गोलाकार मनुष्य क्षेत्रकी सूक्ष्म परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन, एक कोस, एक हजार सात सौ छियासठ दण्ड और पाँच अंगुल होती है। इसका क्षेत्रफल सोलह लाख नौ सौ तीन करोड़ छह लाख चौवन हजार छह सौ एक योजन, ३० एक योजनके उन्नीस भागोंमें-से सोलह भाग प्रमाण होता है। इस क्षेत्रफलके अंगुल नौ हजार चार सौ बयालीस कोटि कोटि कोटि, इक्यावन लाख चार हजार नौ सौ अड़सठ कोटि कोटि, उन्नीस लाख बयालीस हजार चार सौ कोटि प्रमाण होते हैं। ऐसा होनेपर मनुष्य क्षेत्रके प्रतरांगुलोंसे पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या संख्यात गुणी होती है। अतः उनकी अवगाहन शक्ति केवल आगमगम्य है। हमें इसपर कोई आक्षेप नहीं करना है। यह केवल ३५ आज्ञाश्रद्धानका विषय है,यह बतलानेके लिए आचार्योंने लिखा है। इसी प्रकार अन्य-अन्य मी विषय आज्ञाश्रद्धानमें आते हैं ॥१५८।।
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