SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पल्यासंख्यातकभागमात्रकालमुत्कृष्टांतरमकुं। सम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे पल्यासंख्यातैकभागमात्रकालमुत्कृष्टांतरमक्कुमितु सांतरमाणगळुमें टुयरियल्पडुवु। इवकेल्लं जघन्यदिदमंतरकालमोदे समयमक्कुं।। पढमुवसमसहिदाए विरदाविरदीए चोद्दसा दिवसा । विरदीए पण्णरसा विरहिदकालो दु बोद्धव्बो ॥१४५॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहिते विरताविरते चतुर्दश दिवसाः। विरते पंचदश दिवसा विरहितकालस्तु बोद्धव्यः । प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहितरप्प विरताविरतरिगे विरहितकालमुत्कृष्टदिदं चतुर्दशदिवसंगठक्कुमा सम्यक्त्वमुं महाव्रतमुळ्ळर्गे विरहितकालमुत्कृष्टदिदं पंचदशदिवसंगळप्पुवु । द्वितीयसिद्धांतापेक्षायदमिप्पत्त नाल्कु दिवसंगळप्पुवुमिदूपलक्षणमकजीवापेक्षयिदं मार्गणेगळग विरहकालं प्रवचनानुसारमागियरियल्पडुवुदु:- उ=दि ७। सूमा ६। आ=७।८। १० उ-देशवतदिन १४ उपशम वर्ष। उ%3Dविरत दि १५ आमि= वर्ष । ७। ८ । वै=मि = मु १२ । न = अ = पसा = पमि = प। अनंतरं गतिमार्गणास्वरूपनिरूपणं माडिदपं । a यदि न सन्ति तदा उत्कर्षेणोक्तस्वस्वकालपर्यन्तमेव तेषामष्टानां अभावः ततो नाधिकः कालः ॥१४३-१४४॥ अथ सांतरमार्गणाविशेष प्ररूपयति विरहकाले: लोके नानाजीवापेक्षया उत्कृष्टेनान्तरं प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहिताया विरताविरतेः- १५ अणुव्रतस्य, चतुर्दशदिनानि । तत्सहितविरतेः-महाव्रतस्य पञ्चदश दिनानि । तु पुनः, द्वितीयसिद्धान्तापेक्षया चतुर्विंशतिदिनानि । इदमुपलक्षणं इत्येकजीवापेक्षयापि उक्तमार्गणानामन्तरं प्रवचनानुसारेण बोद्धव्यम् ॥१४५।। अथ गतिमार्गणास्वरूपं निरूपयति सम्यग्मिथ्यादृष्टि में से प्रत्येकका अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल है। इस प्रकार सान्तरमागेणा आठ हैं । इनका जघन्य अन्तर एक समय ही जानना। लोकमें यदि उपशम- २० सम्यग्दृष्टि आदि न हो,तो उत्कर्षसे उक्त अपने-अपने काल पर्यन्त ही उन आठोंका अभाव हो सकता है, इससे अधिक काल तक नहीं ॥१४३-१४४॥ आगे सान्तर मार्गणाविशेषको कहते हैं विरहकाल अर्थात् लोकमें नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित विरताविरत अर्थात् अणुव्रतका चौदह दिन है। और प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित २५ विरत अर्थात् महाव्रतका पन्द्रह दिन है। किन्तु द्वितीय सिद्धान्तकी अपेक्षा चौबीस दिन है । यह कथन उपलक्षणरूप है । अतः एक जीवकी अपेक्षा भी उक्त मार्गणाओंका अन्तर प्रवचनके अनुसार जानना ॥१४५॥ अब गतिमार्गणाका स्वरूप कहते हैं १. ल उब.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy