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________________ २६० गो० जीवकाण्डे संपादिसलु लब्धं भव १ इंतोंदु भवक्कं तत्कालक्कं समस्तभवंगळ्गं तत्कालक्कं क्रमदिदं प्रमाणराशिकरणदिदं चतुर्दा त्रैराशिकं सर्वत्र यथासंभवमरियल्पडुगुं। अनंतरं समुद्घातकेवलिग अपर्याप्तकत्वसंभवमं पेळ्दपं: पज्जत्तसरीरस्स य पज्जत्तुदयस्स कायजोगस्स । जोगिस्स अपुण्णत्तं अपुण्णजोगो ति णिद्दिष्टुं ।।१२६॥ पर्याप्तशरीरस्य च पर्याप्त्युदयस्य काययोगस्य । योगिनोऽपूर्णत्वमपूर्णयोगवदिति निद्दिष्टं । परिपूर्णपरमौदारिकशरीरनुं पर्याप्त नामकर्मोदयमनुकळन काययोगमनुझळमितप्प सयोगकेवलिभट्टारकंगे आरोहणावरोहणकवाटद्वयसमुद्घातदो पेळल्पट्टऽपूर्णत्वमौदारिकमिश्रकाययोग दंतप्पऽपूर्णकाययोगमदु पेळल्पटुददु कारणदिंदमामौदारिकमिश्रकाययोगदिदं आक्रांतनप्प १० सयोगकेवलिभट्टारकन कवाटयुगलकालदोळपर्याप्ततेयं भजिसुगुम दितु प्रवचनदोळपेळल्पढें । अनंतरं लब्ध्यपर्याप्तकादिगळ्गे गुणस्थानंगळोळु संभवासंभवप्रकारमं पेन्दपं : __ लद्धियपुण्णो-मिच्छे तत्थ वि बिदिये चउत्थ सटे य । णिव्यत्तियपज्जत्ती तत्थ वि सेसेसु पज्जत्ती ॥१२७|| लब्ध्यपूर्णमिथ्यात्वे तत्रापि द्वितोये चतुर्थे षष्ठे च। निर्वृत्यपर्याप्तकः तत्रापि शेषेषु च १५ पर्याप्तकः। लब्धभवः १ । एवमेकभवस्य तत्कालस्य समस्तभवानां तत्कालानां च क्रमशः प्रमाणराशिकरणात् चतुर्धा त्रैराशिकं सर्वत्र यथासंभवं ज्ञातव्यम् ॥१२५।। अथ समुद्धातकेवलिनः अपर्याप्तत्वसंभवमाह परिपूर्णपरमौदारिकशरीरस्य पर्याप्तनामकर्मोदययुतस्य काययोगयुक्तस्य सयोगकेवलिभट्टारकस्य २० आरोहणावरोहणकपाटद्वये समुद्भूते कथितमपूर्णत्वं अपूर्णकाययोग इति । ततः कारणादौदारिकमिश्रकाय योगाक्रान्तः सयोगकेवलिभट्रारकः कपाटयुगलकाले अपर्याप्ततां भजतीति प्रवचने निर्दिष्टं कथितं ॥१२६।। अथ लब्ध्यपर्याप्त कादीनां गुणस्थानेषु संभवासंभवप्रकारमाह एक क्षुद्रभवका काल 42 उच्छ्वास आता है । पुनः इतने ३६८५३ कालमें इतने ६६३३६ भव तो उ. कालमें कितने भव ? ऐसा त्रैराशिक करनेपर लब्ध एक भव आता है। इस प्रकार २५ एक भव और उसके कालको तथा समस्त भवों और उनके कालोंको क्रमसे प्रमाणराशि करनेसे चार प्रकारसे त्रैराशिक किया। इसी प्रकार सर्वत्र यथासम्भव जानना ॥१२५।। आगे समुद्घात केवलीके अपर्याप्तपना बतलाते हैं सयोगकेवली भट्टारकका परम औदारिक शरीर परिपूर्ण है, उनके पर्याप्त नामकर्मका उदय भी है और वे काययोगसे युक्त हैं। फिर भी जब वे कपाट समुद्घात करते हैं, एक ६. समुद्घातका विस्तार करते हुए और एक संकोच करते हुए, तब इन दोनोंमें अपूर्ण काययोग के होनेसे अपूर्णपना कहा है। इस कारणसे औदारिक मिश्रकाययोगसे युक्त सयोगकेवलि भट्टारकके दोनों कपाटोंके कालमें अपर्याप्तपना होता है।ऐसा जिनागममें कहा है ॥१२६।।। विशेषार्थ-इसी गाथाकी मन्द प्रबोधिनी टीकामें कहा है कि सयोग केवलीके समुद्घातकालमें, कपाटयुगलमें, प्रतरयुगलमें और लोकपूरणमें इन पांच समयोंमें अपर्याप्तपना ३५ कैसे सम्भव है ? ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर है कि अपूर्ण योग ही अर्थात् औदारिकमिश्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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