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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
२५१ अनंतरं पर्याप्तिप्ररूपणाधिकारमं प्रारंभिसुवातं दृष्टांतपुरस्सरं पर्याप्ततरस्वामिनिद्देशार्थनिमित्तमागि पेळ्दपं:
जह पुण्णापुण्णाई गिहघडवत्थादियाइ दव्वाई।
तह पुण्णिदरा जीवा पज्जत्तिदरा मुणेयव्वा ॥११८। यथा पूर्णापूर्णानि गृहघटवस्त्रादिकानि द्रव्याणि । तथा पूर्णेतरा जीवाः पर्याप्ततरा ५ मन्तव्याः॥
एन्तिगळु लोकदोळु गृहघटवस्त्रादिद्रव्यंगळु, व्यंजनप-यात्मकंगळु पूर्णगळ् सर्वशक्तिसंपूर्णगडपूर्णगळु तच्छक्तिविकलंगळ काणल्पडुवुवंते पर्याप्तापर्याप्तनामकर्मोदयं गळिदमाक्रांतगळप्प जीवंगळु पूर्णंगळु स्वस्वयोग्यपर्याप्तिर्गाळदं संभृतंगळु। मत्तमपर्याप्नंगळु तच्छक्तिविकलंगळप्पुर्वेदितु ज्ञातव्यंगलु। * अनंतरं पर्याप्तिविशेषमं तत्स्वामिविशेषमुमं पेलल्वेडि मुंदणगाथासूत्रमं पेन्दपं ।
आहारसरीरिंदियपज्जत्ती आणपाण-भासमणो।
चत्तारि पंच छप्पि य एइंदियवियलसण्णीणं ॥११॥ आहारशरोरेन्द्रियपर्याप्तयः आनापानभाषामनःपर्याप्तयो यथासंख्यं चतस्रः पंच षडपि चैकेन्द्रियविकलसंज्ञिनां ॥
१५ अथ पर्याप्तिप्ररूपणां प्रारभमाणो दृष्टान्तपुरस्सरं ताभिः पूर्णापूर्णत्वं जीवानां दर्शयति
यथा लोके गृहघटवस्त्रादिद्रव्याणि व्यञ्जनपर्यायात्मकानि पूर्णानि- सर्वशक्तिसम्पूर्णानि, अपूर्णानितच्छक्तिविकलानि च दृश्यन्ते । तथा पर्याप्तापर्याप्सनामकर्मोदयाक्रान्ता जीवा अपि पूर्णाः-स्वस्वयोग्यपर्याप्तिभिः संभृताः, अपूर्णाः-तच्छक्तिविकलाश्च भवन्ति इति मन्तव्याः ॥११८॥
अथ पर्याप्तीनां तत्स्वामिनां च विशेषमाह
पर्याप्तिशब्दः प्रत्येकमभिसंबद्धयते मध्यदीपकत्वात् । आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः आनपानपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिः मनःपर्याप्तिरिति पर्याप्तयः षट् ६ । तत्र आद्याश्चतस्र एकेन्द्रियजीवानां मनः
अब पर्याप्तियोंके कथनका प्रारम्भ करते हुए दृष्टान्तपूर्वक उनके द्वारा जीवोंकी पूर्णता और अपूर्णता दिखाते हैं
जैसे लोकमें घर, घट, वस्त्र आदि व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य कुछ पूर्ण और कुछ अपूर्ण २५ होते हैं अर्थात् कुछ पदार्थ सर्वशक्तिसे सम्पन्न और कुछ सर्वशक्तिसे रहित देखे जाते हैं या कुछ अपने अवयवोंसे निष्पन्न होते हैं और कुछ अपने अवयवोंसे अनिष्पन्न होते हैं, वैसे ही पर्याप्तनामकमके उदयसे युक्त जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियोंसे पूर्ण होते हैं और अपर्याप्तनामकर्मके उदयसे युक्त जीव अपूर्ण होते हैं अर्थात् जो सर्वपर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे सम्पन्न होते हैं,वे पर्याप्तक जानना, और जिनमें इस तरहकी शक्ति नहीं है, वे ३० अपर्याप्तक जानना ॥११८॥
आगे उन पर्याप्तिके भेदोंको और उनके स्वामियोंको कहते हैं
मध्यदीपक होनेसे पर्याप्ति शब्द प्रत्येकके साथ लगाया जाता है। आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और भाषापर्याप्ति, मनःपर्याप्ति ये छह पर्याप्तियाँ हैं। इनमें से एकेन्द्रिय जीवोंके आदिकी चार पर्याप्तियाँ होती हैं। दोइन्द्रिय, ३५ तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके मनःपर्याप्तिके बिना पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं। संज्ञिपंचे.
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