SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० गो० जीवकाण्डे दुगुणपरीतासंखेणवहरिदद्धारपल्लवग्गसळा। बिदंगुळवग्गसळासहिया सेढिस्स वग्गसळा ॥ विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि अहिय रूवाणि । तेसिं अण्णोण्णहदे गुणयारो लद्धरासिस्स ॥ विरळिदरासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि हीणरूवाणि । तेसि अण्णोण्णहदे हारो उप्पण्णरासिस्स ॥ [त्रि. सा. १०५-१११] इंतु परिभाषास्वरूपनिरूपणं माडि प्रकृतमं प्रवत्तिसिद। दुगुणपरीत्तासंखेणवहरिदद्धारपल्लवग्गसला । विन्दंगलवग्गसला सहिया सेढिस्स वग्गसला ॥५॥ विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमित्ताणि अहियरूवाणि । तेसिं अण्णोण्णहदी गुणयारो लद्धरासिस्स ॥६॥ विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमित्ताणि होणरूवाणि । तेसि अण्णोण्णहदी हारो उप्पण्णरासिस्स ॥७॥ एवं परिभाषोक्ता । भाग देनेपर सोलह होते हैं, जिसके अर्द्धच्छेद चार हैं । ऐसे ही अन्यत्र जानना । इस प्रकार प्रमाणका वर्णन किया। विशेषार्थ-इस प्रकार मानभेदके द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका परिमाण किया जाता है-सो जहाँ द्रव्यका परिमाण हो, वहाँ उतने पदार्थ अलग-अलग जानना, जहाँ क्षेत्रका १५ परिमाण हो,वहाँ उतने प्रदेश जानना, जहाँ कालका परिमाण हो, वहाँ उतने समय जानना, जहाँ भावका परिमाण हो, वहाँ उतने अविभागी प्रतिच्छेद जानना। जैसे हजार मनुष्य कहनेपर हजार मनुष्य अलग-अलग जानना। इसी प्रकार द्रव्य परिमाणमें अलग-अलग पदार्थ जानना। जैसे यह वस्त्र बीस हाथ है, यहाँ उस वस्त्रमें बीस अंश अलग-अलग नहीं हैं,परन्तु एक हाथ जितना क्षेत्र रोकता है, उसकी कल्पना करके बीस हाथ कहते हैं। इसी प्रकार क्षेत्र परिमाणमें जितना क्षेत्र परमाणु रोकता है,उसको प्रदेश कहते हैं, उसकी कल्पना करके क्षेत्रका परिमाण कहा जाता है। तथा जैसे एक वर्ष के तीन सौ छियासठ दिन-रात कहे जाते हैं, किन्त अखण्डित काल-प्रवाहमें अंश नहीं हैं। परन्त सर्यके उदय-अस्त होने की अपेक्षा कल्पना करके कहे जाते हैं। इसी प्रकार कालप्रमाणमें जितने कालमें एक परमाणु मन्दगतिसे एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर जाता है, उसको समय कहते हैं, उसीकी अपेक्षा कल्पना करके २५ कालका प्रमाण कहा है। तथा जैसे ये सोना सोला वानीका है सो उस सोनेमें सोलह अंश नहीं हैं,तथापि एक वानके सोनामें जैसे वर्णादिक पाये जाते हैं, उनकी अपेक्षा कल्पना करके कहा है। इसी प्रकार भाव परिमाणमें केवलज्ञानगम्य अतिसूक्ष्म जिसका दूसरा भाग न हो,ऐसे शक्तिके अंशको अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं। उसकी कल्पना करके भावका परिमाण कहा है । इस प्रकार मुख्य परिमाणका कथन जानना । विशेष जैसा जहाँ विवक्षित हो,वहाँ वैसा जानना। जैसे क्षेत्र परिमाणमें आवलीका परिमाण कहा,वहाँ आवलीके जितने समय हों, उतने प्रदेश जानना। इसी प्रकार कालप्रमाणमें जहाँ लोकप्रमाण कहा, वहाँ लोकके जितने प्रदेश हों,उतने समय जानना । इस प्रकार इस ग्रन्थमें यत्र-तत्र मानका प्रयोजन जान कर मानका वर्णन किया है। ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy