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________________ १९२ गो० जीवकाण्डे ६। ८।२। सुद्धे इत्याद्यानीतंगळु प । १९ । ८।९।८।२२।८।९ मिनितप्पुवु ॥ a a a अनंतरं सर्वावगाहनस्थानंगळगे गुणकारोत्पत्तिक्रममनतिदेशिसुत्तं पेन्दं । एवमुवरि वि णेया पदेसवढिक्कमो जहाजोग्गं ।। सव्वत्थेक्केक्कम्मि य जीवसमासाण विच्चाले ॥१११।। एवमुपर्य्यपि ज्ञेयः प्रदेशवृद्धिक्रमो यथायोग्यं । सर्वत्रैकैकस्मिश्च जीवसमासानामंतराले॥ इंती प्रकादिदमे सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपप्तिकजघन्यावगाहनस्थानं मोदल्गोंडु सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तकवायुकायिकजीवजघन्यावगाहनस्थानावसानमागि परगे पेन्द चतुःस्थानपतितप्रदेशवृद्धि क्रमप्रकादिंद मेले सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तकतेजस्कायिकजघन्यावगाहनमादियागि द्वींद्रियपर्याप्रकजीव जघन्यावगाहनस्थानपर्यंतमिर्दु जीवसमासावगाहनस्थानंगळोंदों दंतराळदोळु प्रत्येकं चतुःस्थान१० पतितप्रदेशवृद्धिक्रमदिदमु अल्लिदत्तणि त्रींद्रियपर्याप्तकजघन्यावगाहनस्थानं मोदल्गोंडु संज्ञि ६।८। २२ । ८। तानि एतावन्ति स्युः- प। १९ । ८।९।८। २२। । ९॥ अथ सर्वावगाहनस्थानानां गुणकारोत्पत्तिक्रममाह एवं-अनेन प्रकारेण सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहनस्थानमादिं कृत्वा सुक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तकवायुकायिकजीवजघन्यावगाहनस्थानपर्यन्तं प्रागुक्तचतुःस्थानपतितप्रदेशवृद्धिक्रमप्रकारेण उपर्यपि सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तक१५ तेजस्कायिक जघन्यावगाहनादारभ्य द्वीन्द्रियपर्याप्त कजघन्यावगाहनपर्यन्तं जीवसमासावगाहस्थानानामन्तरालेषु प्रत्येकं चतुःस्थानपतितप्रदेशवृद्धिक्रमेण तथा तदने त्रीन्द्रियपर्याप्त कजघन्यावगाहनस्थानमादिं कृत्वा संज्ञिपञ्चेसूक्ष्म वायुकायिक लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य अवगाहनास्थानकी उत्पत्ति होती है। यहाँ कितने अवगाहन स्थान हुए ? यह जाननेके लिए उक्त सूत्रके अनुसार आदि स्थानको अन्तिम स्थानमें घटाकर एकका भाग देकर लब्धराशिमें एक जोड़नेपर स्थानोंका प्रमाण २० होता है ।। ११० ॥ आगे सब अवगाहन स्थानोंके गुणकारकी उत्पत्तिका क्रम कहते हैं इस प्रकार सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य अवगाहनस्थानको आदि देकर सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तकवायुकायिक जीवके जघन्य अवगाहनस्थान पर्यन्त पूर्वोक्त चतुःस्थानपतित प्रदेशवृद्धिका क्रम विधान कहा। इसी तरह ऊपर भी सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तक तेजस्कायिकके २५ जघन्य अवगाहनसे लेकर दोइन्द्रिय पर्याप्त कके जघन्य अवगाहनस्थान पर्यन्त जीवसमासोंके अवगाहनस्थानोंके अन्तरालोंमें से प्रत्येकके चतुःस्थानपतित प्रदेशवृद्धिके क्रमसे यथायोग्य १. म "क्रमनतिदेशिसुत्तदं पेल्दपं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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