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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १८१ ६।८।२२-.सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकनजघन्यावगाहनमनिदं प०।१९। ८ । २२ । । । ९ लघुसंदृष्टिनिमित्तमागि। ज एंदितु स्थापिसि मत्तं द्वितीयावगाहनभेदनिमित्तमिदरोळ ओंदु प्रदेशमं प्रक्षेपिसुत्तिरलु सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तन द्वितीयावगाहनविकल्पमा । ज मितु प्रदेशोत्तरक्रमदिदं सूक्ष्मवायुकायिकापर्याप्तकन जवन्यावगाहनं सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्पकन जघन्यावगाहमं नोडलावल्यसंख्येयभागगुणितमक्कुमेन्नेवरं नडेववु । अल्लियसंख्यातभागवृद्धियं, संख्यातभागवृद्धियु संख्यातगुणवृद्धियुमसंख्यातगुणवृद्धियुमंदितु चतुःस्थानगतवृद्धिगळ नडुबै नडुवेयऽवक्तव्य भागवृद्धिगलिंदमुं वर्द्धमानावगाहनस्थानंगपुटुव प्रकारमतें दोड सर्वजघन्यावगाहनमिदु । ज। मत्तमी राशियनी राशियिंदम भागिसि बंद लब्धमोदु रूपऽदना जघन्यदोळ्कूडि स्थापिसिदडे द्वितीय विकल्पस्थानमसंख्यातभागवृद्धिगे मोदलक्कं । ज। ज। मतमाजघन्यावगाहनमने तनदिदं २ १० ज ६।८ । २२ a सूक्ष्मनिगोदलबध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहनमिदं प । १९ । ८ । ९।८।२२।१९ लघुसंदृष्ट्या ज इति कृत्वा संस्थाप्य पुनद्वितीयावगाहनभेदनिमित्तमकप्रदेशे युते सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य द्वितीयाव गाहनविकल्पो भवति । ज । एवं प्रदेशोत्तरक्रमेण तावदवागन्तव्यं यावत्सूक्ष्मवायकायिकपर्याप्तकजघन्यावगाहनं सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहनाद आवल्यसंख्येयभागगणितं भवति । तत्र असंख्यातभागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः इति चतुःस्थानगतवृद्धिभिर्मध्ये मध्ये अवक्तव्यभाग १५ वृद्धिश्च । वर्धमानावगाहनस्थानानां उत्पत्तिप्रकारः कथ्यते सर्वजघन्यावगाहनमिदं ( ज ) अस्मिन् अनेनैव ' सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना पहले कही है। लघुसंदृष्टि के लिए उसके स्थानमें 'ज' अक्षर स्थापित किया; क्योंकि यह सबसे जघन्य है। अवगाहनाका दूसरा भेद लानेके लिए इस जघन्य अवगाहनामें एक प्रदेश जोड़नेपर सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तका दूसरा भेद होता है। इस तरह क्रमसे एक-एक प्रदेश बढ़ाते हुए तबतक जाना २० चाहिए,जबतक सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त की जघन्य अवगाहना आवे । सो सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित होती है। उसमें असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि इन चतुःस्थानगतवृद्धिके मध्य-मध्यमें अवक्तव्यभागवृद्धियोंसे वर्धमान अवगाहन स्थानोंकी उत्पत्तिका प्रकार कहते हैं। विशेषार्थ-सबसे जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है। अतः उसके प्रदेश असंख्यात ही हैं अनन्त नहीं हैं । इससे अनन्त भागवृद्धि यहाँ नहीं होती । तथा उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात घनांगुल मात्र है। उसके प्रदेश भी असंख्यात ही हैं, अनन्त नहीं हैं इसलिए जघन्यसे अनन्तगुणवृद्धि भी नहीं होती। अतः असंख्यातभागवृद्धि आदि चार ही वृद्धियाँ यहाँ कही हैं। जहाँ-जहाँ संख्यात और असंख्यातका भागहार या गुणाकार सम्भव है. नहीं है, ऐसे प्रदेशोंकी वृद्धिको अवक्तव्य वृद्धि कहा है। यह वृद्धि उक्त चतुःस्थान वृद्धिके बीच-बीच में होती है। उसीका कथन करते हैं २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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