________________
१७७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कायिकपर्याप्तोत्कृष्टावगाहनं विशेषाधिकमक्कुमा विशेषमं मुंनिनंते यावल्यसंख्येयभागमं तंदु
६।८।१८ कूडिपत्तितमिदं ५।४।८।३। ८ ॥ १८ ॥ १।९ नोडे सूक्ष्मतेजस्कायिकपर्याप्तजघन्यावगा
a
६।८।१८
हनमावल्यसंख्येय
तमपत्तितमिदी प ८।८।२।८।१८।।९ प्रकारदिदं पोगि aaaa
६।८।१२
सूक्ष्मभूमिकायिकपर्याप्तोत्कृष्टावगाहं विशेषाधिकमागियपत्तित प।।।८।८।१२।१।९ मिदं नोड बादरवायुकायिकपर्याप्तजघन्यावगाहं सूक्ष्माबादरस्य को गुणकार : पल्यासंख्येयभाग : एंबी ५
aa
६।८। १८
आवल्यसंख्येयभागभक्तपूर्वराशिनाधिकमित्यर्थः । प। ८।८। ३ । ८ । १८ । । ९ अतः सूक्ष्मतेजस्कायिक
a a a
६ । ८ । १८
पर्याप्तजघन्यावगाहनमावल्यसंख्येयभागगुणितनपवर्तितं ५। ८ । ८ । २। ८।१८। । ९ एवं द्वे द्वे
a aa आवल्यसंख्येयभागभक्तस्वस्वपूर्वराश्यधिके एकैकं स्वस्वपूर्वराशितः आवल्यसंख्येयभागगुणितमित्यष्टावगाहनान्य
पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। सो ही पूर्वराशिको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भाग अधिक जानना । यहाँ भी अपवर्तन करना । इससे सूक्ष्म तेजस्- १० कायिक पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित है। यहाँ अपवतन करनेपर आवलीके असंख्यातव भागका भागहार तीन बारकी जगह दो बार रहा। इससे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित है। इससे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तकी - उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना आवलीके असंख्यातवें भाग गुणित है। इससे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। इस तरह दो-दो तो आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित पूर्वराशि प्रमाण विशेष अधिक हैं और एक-एक अपनी-अपनी पूर्वराशिसे आवलीके असंख्यातवे भाग गुणा जानना। इस तरह आठ अवगाहनास्थानोंको उल्लंघ कर आठवाँ सक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। सो
पर्वोक्त प्रकारसे अपवर्तन करनेसे बारह बार आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित तथा आठ बार
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org