________________
१५८
गो० जीवकाण्डे मिश्रमे पुद्गलस्कंधं योनियक्कुं । संमूर्च्छनजन्मदोळु तु मत्त सचित्तमुमचित्तमं तदुभयात्मकममेंदी त्रिविधयोनिगळक्कं॥
उववादे सीदुसणं सेसे सीदुसणमिस्सयं होदि ।
उववादेयक्खेसु य संउड वियलेस विउलं तु ॥८६॥ उपपादे शीतोष्णो शेषे शीतोष्णमिश्रकं भवति । उपपादे एकाक्षे च संवृतो विकलेषु विवृतं तु ॥ उपरादजन्मदोळु शोतमुमुष्णमुमेरपुं योनिगळु। शेषगर्भजन्मदोळं संमूर्छनजन्मदोळं प्रत्येकं शीतममष्णम मिश्रम मेंबो मूरु मूरु योनिगळक्कं । तेजस्कायिकंगळोष्णयोनियक्कुमुपपादजन्मरोळमेकेंद्रियंगळोळं संवृतमे योनियक्कु। विकलेंद्रियंगळोळु विवृतयोनियेयककु॥
गब्भजजीवाणं पुण मिस्सं णियमेण होदि जोणी हु ।
सम्मुच्छणपंच्चक्खे वियलं वा विउडजोणी हु ।।८७॥ गर्भजजीवानां पुनमिश्रो नियमेन भवति योनिः खलु । संमूर्च्छनपंचाक्षे विकलवद्विवृतो योनिः खलु ॥ गर्भजजीवंगळ्गे मत्त संवृतविवृतंर्गाळदं मिश्रयोनिये यक्कु। सन्मूच्छंनजपंचेंद्रियंगळोळ विकलेंद्रियदोळेन्तन्ते विवृतयोनियक्कु॥
देवनारकसंबन्ध्युपपादजन्मभेदे अचित्तैव योनिः स्यात् । गर्भजन्मनि सचित्ताचित्तमिश्र एव पुद्गलस्कन्धो १५ योनिः स्यात् । संमूर्छनजन्मनि तु पुनः सचित्ता अचित्ता उभया चेति त्रिविधा योनिर्भवति ।।८५॥
उपपादजन्मनि शीतोष्णे द्वे योनी स्यातां । शेषे गर्भजन्मनि संमर्छनजन्मनि च प्रत्येक शीता उष्णा मिश्रा चेति तिस्रो योनयः स्युः । ( तेजस्कायिकेषु उष्णैव योनिः स्यात् ) उपपादजेषु एकेन्द्रिगेषु च संवृतैव योनिः स्यात् । विकलेन्द्रियेषु विवृतैव योनिः स्यात् ॥८६॥
गर्भजजीवानां पुनः संवृतविवृताभ्यां मिश्रा एव योनिः स्यात् । संमूर्छनजपञ्चेन्द्रियेषु विकलेन्द्रियव२० देव-नारकी सम्बन्धी उपपाद जन्मभेद में अचित्त ही योनि होती है। गर्भजन्ममें
सचित्त और अचित्तका मिश्र ही पुद्गल-स्कन्धरूप योनि होती है। अर्थात् माताके उदर में रज और वीर्य अचित्त होता है और उसका मिश्रण सचित्त आत्माके साथ होनेसे मिश्ररूप सचित्ताचित्त योनि होती है। सम्मूर्छन जन्ममें सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त तीन
प्रकारकी योनियाँ होती हैं। क्योंकि गर्भ और उपपादसे रहित प्रदेशोंमें कहीं सचित्त, कहीं २५ अचित्त और कहीं सचित्ताचित्त पुद्गलस्कन्धमें जीवोंकी उत्पत्ति सम्भव है ।।८५॥
उपपाद जन्ममें शीत और उष्ण ये दो योनि होती हैं। क्योंकि रत्नप्रभासे लेकर धूमप्रभाके तीन चतुर्थ भाग पर्यन्त विलोंमें उष्ण स्पर्श ही होता है । और धूमप्रभाके चतुर्थ भागसे लेकर महातमःप्रभा पर्यन्त विलोंमें शीत स्पर्श ही होता है। शेष गर्भजन्म और सम्मर्छन जन्ममें से प्रत्येकमें शीत, उष्ण और मिश्र तीनों योनियाँ होती हैं । किन्तु तेजस्कायिक जीवोंमें उष्ण ही योनि होती है। उपपाद जन्मवालोंमें और एकेन्द्रियोंमें संवृत ही योनि होती है। तथा विकलेन्द्रियोंमें विवृत योनि ही होती है ॥८६॥
___ गर्भज जीवोंके संवृत और विवृतके मिश्ररूप योनि होती है ,क्योंकि पुरुषके शरीरसे निकला वीर्य विवृतरूप और स्त्रीका रज संवृतरूप होनेसे दोनोंके मेलसे मिश्र योनि होती
है। सम्मूर्छन पंचेन्द्रियोंमें विकलेन्द्रियोंकी तरह विवृत योनि ही होती है ।।८।। ३५ १. ब विकलत्रयेषु ।
30
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org