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________________ १५० गो० जीवकाण्डे कायंगळे दितारु प्रत्येकं बादरसूक्ष्मभेददिदं पन्नेरडु भेदंगळु प्रत्येकवनस्पतियप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितभेदंगळेरमित स्थावरकायिकचतुर्दशभेदंगर्छ त्रसकायद द्वित्रिचतरिद्रियंगळुमसंज्ञिसंज्ञिपंचेद्रियंगळु में बर्मितु एकानविंशतिजीवसमासस्थानंगळप्पुवितु पेळल्पट्ट सामान्यजीवरूपैक स्थानादिगळेकानविंशतिभेदस्थानपर्यंतंगळो दरिंद मेररिद मूरिंदं गुणियिसल्पतॄतप्पुवु । ५ यथाक्रममेकानविंशतिभेदस्थानंगळुमष्टात्रिंशभेदस्थानंगळु सप्तपंचाशत् भेदस्थानंगळुमप्पुवु ।। सामण्णेण तिपंती पढमा बिदिया अपुण्णगे इदरे । पज्जत्ते लद्धियपज्जत्ते अमढमा हवे पंती |७८॥ सामान्येन त्रिपङ्क्तिः प्रथमा द्वितीयाऽपूर्णके इतरे । पर्याप्ते लब्ध्यपर्याप्तेऽप्रथमा भवेत्पङक्तिः ।। इन्तु पेळल्पट्टे कायेकोत्तरमागेकान्नविशतिविकल्पस्थानंगळमरु पंक्तिगळागि केळकेळगे तिर्य१० कागि स्थापिसल्पडुववंतु स्थापिसल्पट्ट मूरु पंक्तिगळोळप्रथम पंक्ति पर्याप्तादिविवक्षेयं माडदे सामान्यालापदिदं गुणियिसल्पटुदु। तदवस्थास्वरूपदिदिरुतिधै। द्वितीयपंक्ति पर्याप्तभेदमप्प पर्याप्तनिवृत्यपर्याप्तमें बरडु भेददिदं गुणियिसल्पडुवुदु। अप्रथमा तृतीयपंक्तिपर्याप्तनित्यपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्तभेदत्रदिदं गुणियिसल्पगुमिल्लि द्वितीयतृतीयपंक्तिद्वयक्कमप्रथमत्वं साधारण्यदिदं प्रेसंगिसल्पडुत्तिरलु द्वितीयपंक्तिगे कंठोक्तत्वदिदमप्रथमा एंबिदरिदं पारिशेष्यन्यायदिदं तृतीय१५ पंक्ति गृहीतमायतु । इल्लि सामान्यप्रथमपंक्तिय युति । मुख । १ । भूमि १९ । जोग २० । दले स्थानादीनि एकोनविंशतिभेदस्थानपर्यन्तानि एकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्गुणितानि यथाक्रम एकोनविंशतिभेदस्थानानि अष्टात्रिंशभेदस्थानानि सप्तपञ्चाशदभेदस्थानानि च भवन्ति ॥७७॥ अथ एक-द्वित्रिगुणकारकारणं प्ररूपयति प्रागुक्तकाद्यकोत्तरैकानविंशतिविकल्पस्थानानां तिस्रः पङक्तयोऽधोधः कर्तव्याः । तासु प्रथमा पङ्क्तिः पर्याप्तादिविवक्षामकृत्वा सामान्यालापेन गुणयितव्या । द्वितीया पङ्क्तिाभ्यां पर्याप्तापर्याप्तभेदाभ्यां गुणयितव्या। अप्रथमा-तृतीया पक्तिः त्रिभिः पर्याप्तनिवृत्यपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्तभेदैर्गुणयितव्या । द्वितीयतृतीयपङ्क्तयोरप्रथमत्वेऽपि द्वितीयायाः कण्ठोक्तत्वेन अप्रथमा इत्यनेन पारिशेष्यात्ततीयैव गृहीता। तत्र सामान्यप्रथमपङ्क्तेः मुह १ छहों बादर और सूक्ष्म, प्रत्येक वनस्पतिके सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेद, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, ये सब मिलकर जीवसमासके स्थान उन्नीस होते हैं। इस प्रकार सामान्य जीवरूप एक स्थानसे उन्नीस भेद पर्यन्त स्थानोंको एक, दो २५ और तीनसे गुणा करनेपर यथाक्रम उन्नीस भेदस्थान, अड़तीस भेदस्थान और सत्तावन भेदस्थान होते हैं ॥७७।। आगे एक दो और तीनसे गुणकार करने का कारण कहते हैं पहले कहे एकसे लेकर उन्नीस भेदस्थानोंकी तीन पंक्तियाँ नीचे-नीचे करनी चाहिए। उनमें-से पहली पंक्तिको तो पर्याप्त-अपर्याप्त आदिको विवक्षा न करके सामान्य आलापसे ३० गुणा करना चाहिए । दूसरी पंक्तिको पर्याप्त और अपर्याप्त भेदसे गुणा करना चाहिए। और अप्रथमा अर्थात् तीसरी पंक्तिको पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त इन तीन भेदोंसे गुणा करना चाहिए । यद्यपि दूसरी और तीसरी दोनों ही पंक्तियाँ अप्रथम हैं, फिर भी द्वितीयाका नाम लिया है,इसलिए अप्रथमासे पारिशेष्य न्यायसे तीसरी का ही ग्रहण किया है। इन तीनों पंक्तियोंके समस्त भेदोंका जोड़ लाने के लिए 'मुहभूमिजोगदले पदगुणिदे ३५ १. म प्रसक्तिसुत्तिरत्नु । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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