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________________ १४४ गो० जीवकाण्डे कर्मदुदयमुंटागुत्तिरलु प्रादुर्भूतंगळप्प तद्भवसादृश्यसामान्यरूप जीवधर्मगळु जीवसमासंगळेबुवक्कुं। तद्भवसामान्यमें बुदुते विवक्षितद्रव्यगतपर्यायास्त्रिकालगोचरा भवंति । विद्यन्तेऽस्मिनिति तद्भवं । सामान्यमवंतासामान्यमित्यर्थः। ऊवंतासामान्य बुदु नानाकालदोळेकव्यक्ति गतान्वयमूर्खतासामान्यमक्कं । द्रव्याश्रितपर्यायमन्वयम बुदु । स्थासकोशकुशूलघटकपालादि पयिंगळोळमणिननन्तान्विताकारमप्पुदु द्रव्यमदरिदुपलक्षिसल्पट्टवु।। सादृश्यसामान्यंगन्तिर्वसामान्यंगळेवदत्थं । एककालदोळ नानाव्यक्तिगतान्वयं तिर्यसामान्यं । सदृशपरिणामंगळप्प खंडमुंडशबलशाबलेयादिविविधव्यक्तिगळोळु गोत्वादिय तंत, पृथिवीकायिकादि विविध जोवंगळोळेकेंद्रियत्वादि धर्मगळु सदृशपरिणामरूपगळ् जीवसमासंगळप्पुबुदु खलु तात्पथ्यं । . मत्तमा चतुर्युगलंगळोळु एकेंद्रियजातिनामकर्मदोडने असनामकर्मोदयं विरुद्धं शेषकम्र्मोदयमविरुद्धं, द्वोंद्रियादि जातिनाम कर्मचतुष्टयदोडने स्थावरसूक्ष्मसाधारणनाम कम्मंगळुदयं विरुद्धमितर कम्र्मोदयमविरुद्धमन्ते त्रसनाम कर्मदोडने स्थावरसूक्ष्मसाधारण नामकर्मोदयं विरुद्धं शेषकर्मोदयमविरुद्धं स्थावरनामकर्मदोडने सनामकर्मोदयमोदे विरुद्धं शेषकर्मोदयमविरुद्धं बादर १५ तद्भवसादृश्य सामान्यरूपजीवधर्मा जीवसमासा भवन्ति । तद्भवसामान्यं नाम ते विवक्षितद्रव्यगतपर्यायास्त्रिकालगोचरा भवन्ति-विद्यन्ते अस्मिन्निति तद्भवं सामान्यं-ऊर्ध्वतासामान्य मित्यर्थः। तच्च नानाकाले एकव्यक्तिगतान्वयरूपं भवति । द्रव्याश्रितपर्यायोऽन्वयः । स्थासकोशकुदालघटकपालिकादिषु मुदिव अन्विताकारद्रव्यं तेनोपलक्ष्यते । सादृश्यसामान्यानि तिर्यक्सामान्यानीत्यर्थः । एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यक्सामान्यं सदृशपरिणामाः खण्डमुण्डशवलशावलेयादिविविधव्यक्तिषु गोत्वादिवत् । तथा पृथिवीकायिकादि विविधजीवेषु एकेन्द्रियत्वादिधर्माः सदृशपरिणामरूपा जीवसमासा भवन्तीति खलु तात्पर्य । पुनः तेषु चतुर्यु २० युगलेषु एकेन्द्रियजातिनामकर्मणा सह त्रसनामकर्मोदयो विरुद्धः । द्वीन्द्रियादिजातिनामकर्मचतुष्टयेन सह स्थावर सूक्ष्मसाधारणनामकर्मोदयो विरुद्धः इतरकर्मोदयः अविरुद्धः । तथा प्रसनामकर्मणा सह स्थावरसूक्ष्मसाधारणनामकर्मोदयो विरुद्धः शेषकर्मोदयः अविरुद्धः । स्थावरनामकर्मणा सह त्रसनामकर्मोदय एक एव विरुद्धः जातिनाम कर्मका उदय होनेपर प्रकट हुए तद्भव सादृश्य सामान्य रूप जीवधर्म जीव समास होते हैं। जिसमें विवक्षित द्रव्यगत त्रिकालवर्ती पर्याय होती हैं, उसे तद्भव सामान्य २५ कह . कहते हैं। उसीका नाम ऊर्ध्वता सामान्य है। वह नाना समयों में एक व्यक्ति में विद्यमान अन्वय रूप होता है। एक द्रव्यके आश्रित पर्यायोंको अन्वय कहते हैं। जैसे स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपाल आदि पर्यायों में मिट्टी अन्वित आकारको लिये हुए द्रव्य है। अर्थात् स्थास आदि सब पर्यायोंमें मिट्टी अनुस्यूत रहती है । सादृश्य सामान्य तिर्यक् सामान्यको कहते हैं। एक कालमें नाना व्यक्तियों में पाया जानेवाला अन्वय तिर्यक सामान्य है अथोत् नाना व्यक्तियोंमें जो सदृश परिणाम होता है, वह तिर्यक् सामान्य है। जैसे खण्डी, मुण्डी, चितकबरी, काली, धौली आदि गायोंमें गायपना समान धर्म है, उसी प्रकार पृथिवीकायिक आदि विविध जीवोंमें एकेन्द्रियपना आदि सदृश परिणामरूप धर्म जीवसमास हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उक्त चार यगलोंमें एकेन्दिय जाति नाम कर्मके साथ त्रस नाम कर्मका उदय विरुद्ध है । इसी तरह द्वीन्द्रिय जाति नाम कर्म, तेइन्द्रिय जाति नाम कर्म, चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म और पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म के साथ स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नाम १. म बुदक्कुं। यल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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