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गोम्मटसार जीवकाण्ड
आगे आठवें त्रिकरण चूलिका नामक अधिकार के प्रारम्भ में कहा है
णमह गुणरयणभूषण सिद्धतामियमहद्धिभवभावं।
वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥८६॥ हे गुणरत्नभूषण चामुण्डराय! सिद्धान्तशास्त्ररूपी अमृतमय महासमुद्र में उत्पन्न हुए उत्कृष्ट वीरनन्दिरूपी चन्द्रमा को तथा निर्मल गुणवाले इन्द्रनन्दि गुरु को नमस्कार करो।
इस प्रकार अभयनन्दि, वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और कनकनन्दि ये चार उनके गुरु थे। सम्भवतया ये सभी सिद्धान्त समुद्र के पारगामी होने से सिद्धान्तचक्रवर्ती थे।
आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने जीवकाण्ड में अपने किसी भी गुरु का स्मरण नहीं किया और कर्मकाण्ड के कई अवान्तर अधिकारों के प्रारम्भ में उनका स्मरण किया, क्या इसमें कोई विशेष कारण हो सकता है? ऐसा मन में प्रश्न होता है।
जीवकाण्ड का विषय बीस प्ररूपणाओं से सम्बद्ध है, किन्तु कर्मकाण्ड का विषय कर्मसिद्धान्त से सम्बद्ध है। हो सकता है उक्त आचार्य कर्मसिद्धान्त के उस-उस विषय के विशेषज्ञ रहे हों और आचार्य नेमिचन्द्र ने उन-उन विषयों का विशेष अनुशीलन उनसे किया हो। जैसे सत्त्वस्थान नामक प्रकरण के अन्त में कहा है कि इन्द्रनन्दि गुरु के पास में सम्पूर्ण सिद्धान्त को सुनकर कनकनन्दि गुरु ने सत्त्वस्थान का कथन किया।
स्व. श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने (अनेकान्त वर्ष ८, कि. ८-६, पृ. ३०४) लिखा था कि यह सत्त्वस्थान ग्रन्थ विस्तर सत्त्वभंगी के नाम से आरा के जैनसिद्धान्त भवन में मौजूद है। इस सत्त्वस्थान ग्रन्थ को नेमिचन्द्र ने अपने गोम्मटसार ग्रन्थ के सत्त्वस्थान नामक अधिकार में प्रायः ज्यों-का-त्यों अपनाया है। इन्द्रनन्दि, वीरनन्दि
आदि के द्वारा रचित कोई कर्मसिद्धान्त-विषयक ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु कनकनन्दी ने उन्हीं से सकल सिद्धान्त का अध्ययन करके सत्त्वस्थान का कथन किया था। अतः उक्त दोनों ही आचार्य उस विषय के मर्मज्ञ विद्वान् होने चाहिए। खेद है कि आचार्य नेमिचन्द्र के इन सकल श्रुत पारगामी गुरुजनों के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। एक वीरनन्दि का 'चन्द्रप्रभचरित' काव्य उपलब्ध है। उसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपने गुरु का नाम अभयनन्दि लिखा है और उनका समय भी प्रायः वही है। मात्र इसी आधार पर उन्हें नेमिचन्द्र के द्वारा स्मृत वीरनन्दि माना जाता है।
इन्द्रनन्दि नामक आचार्य रचित एक 'श्रुतावतार' है जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के अन्तर्गत 'तत्त्वानुशासनादि संग्रह' में प्रकाशित हो चुका है। उससे ज्ञात होता है कि वे सिद्धान्तशास्त्रों की परम्परा से तथा उनके विषयादि से सुपरिचित थे। सिद्धान्तग्रन्थ विषयक उनका वर्णन बहुत ही प्रामाणिक और सुसंगत है। अतः वे इन्द्रनन्दि आचार्य नेमिचन्द्र के गुरु हो सकते हैं। इन सबमें अभयनन्दि ही बड़े और प्रधान प्रतीत होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि विक्रम की ११ वीं शती में सिद्धान्त विषयक ज्ञाताओं का अच्छा समूह था और ये सब चामुण्डराय के समय में भी वर्तमान थे; क्योंकि कर्मकाण्ड की एक गाथा में आचार्य नेमिचन्द्र चामण्डराय से उनको नमस्कार करने की प्रेरणा करते हैं। अतः उसकी रचना करते समय वे सब अवश्य ही उपस्थित होने चाहिए। ‘गोम्मटसार' की रचना में उन सबका ही योगदान रहा प्रतीत होता है।
आचार्य नेमिचन्द्र के एक शिष्य माधवचन्द्र विद्य थे। उन्होंने अपने गुरु के द्वारा निर्मित 'त्रिलोकसार' ग्रन्थ पर संस्कृत में टीका रची थी। उन्होंने अपनी टीकाकार प्रशस्ति में कहा है कि अपने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को सम्मत अथवा ग्रन्थकर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव के अभिप्राय का अनुसरण करनेवाली कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र त्रैविद्य ने भी यहाँ-वहाँ रची हैं। माधवचन्द्र भी करणानुयोग के पंडित थे। उनकी गणित शास्त्र में विशेष गति थी। उनके द्वारा सिद्ध गणित को त्रिलोकसार में निबद्ध किया गया है और यह गाथा में प्रयुक्त 'माधवचंदुद्धरिया' पद से जो द्वि-अर्थक है, स्पष्ट होता है। 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में भी योगमार्गणाधिकार में इनके मत का निर्देश है। अतः गुरुजनों के साथ शिष्यजन भी इस ग्रन्थरचना गोष्ठी में सम्मिलित थे।
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