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________________ १३८ गो० जीवकाण्डे संति सिद्धरुमोळरु सिद्धिय बुदु स्वात्मोपलब्धियककुमारदं सिद्धिरस्त्येषामिति सिद्धाः एंदितु प्राप्तानंतज्ञानादिस्वरूपरें बुदत्थं । ___मत्तमवर्गळेतप्पर दोर्ड अष्टविधकर्मविकलाः अंत बुदेने बुदे दोर्ड अनेकप्रकारोत्तरप्रकृतिगभितंगळप्प ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिकमंगळे टु मेटु गुणंगळगे प्रतिपक्षंगळदेंतेने इल्लिगुपयोगि५ गाथासूत्रद्वयं। मोहो खा ायसम्म केवळणाणं च केवळाळोयं । हणदि हु आवरणदुर्ग अणंतविरियं हणेदि विग्घं तु ॥ सुहमं च णामकम्मं हदि आऊ हणेदि अवगहणं । अगुरुगलहुगं गोदं अब्बाबाहं हणेदि वेयणियं ।। एंदितष्टविधप्रतिपक्षकर्मप्रक्षदिद निष्प्रतिपक्षमागितोळगे बेळगति सिद्धर्मक्तरेंबुदथं । अदरिदं संसारिजीवक्के दप्पडं मुक्तियिल्लब याज्ञिकमतमु, सवंदा कर्ममलंगळिंदमस्पृष्ट त्वदिदं सदा मुक्तने सदैवेश्वरने एंदितु पेळ्व सदाशिवमतमुमपास्तमारतु ॥ __ मत्ततत्परवर्गळे दोर्ड शीतीभूताः अंत बुदुमेने बुदे दोडे सहजशारीरागंतुकमानसादिविविधसांसारिकदुःखवेदनापरितापपरिक्षदिदं सुनिर्वतरबुदत्थं । इदरिदं मुक्तियोळात्मंगे १५ सुखाभावदितु पेळ्व सांख्यमतमपाकृतमातु ॥ अपि सन्ति । ते कथंभूताः ? अष्टविधकर्मविकला अनेकप्रकारोत्तरप्रकृतिगर्भाणां ज्ञानावरणाद्यष्टविधमूलप्रकृतिकर्मणां इत्यष्टगुणप्रतिपक्षाणां प्रक्षयेण विकला: निष्प्रतिपक्षा मुक्ता इत्यर्थः। अनेन संसारिजीवस्य मक्तिनास्तीति याज्ञिकमतं, सर्वदा कर्ममलैरस्पृष्टत्वेन सदा मुक्त एव सदैवेश्वर इति सदाशिवमतं च अपास्तं । पुनः २० कथंभूताः ? शीतीभूताः सहजशरीरागन्तुकमानसादिविविधसांसारिकदुःखवेदनापरितापपरिक्षयेण सुनिवृत्ता इत्यर्थः । अनेन मुक्तो आत्मनः सुखाभावं वदन् सांख्यमतमपाकृतं । पुनः कथंभूताः ? निरंजना:-अभिनवासव. रूपकर्ममलरूपाञ्जनान्निष्क्रान्ताः इत्यर्थः । अनेन मुक्तात्मनः पुनः कर्माञ्जनसंसर्गेण संसारोऽस्तीति वदन उपलब्धिरूप सिद्धिसे सम्पन्न मुक्त जीव भी हैं। वे अनेक प्रकारकी उत्तर प्रकृतियोंको गर्भ में लिये ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियोंका, जो आठ गुणोंकी विरोधी हैं क्षय हो जानेसे २५ कर्मसे रहित हैं । कहा है 'मोहनीय कर्म क्षायिक सम्यक्त्वको घातता है। ज्ञानावरण केवलज्ञानको और दर्शनावरण केवलदर्शनको धातता है। अन्तराय कर्म अनन्तवीर्यको घातता है। नामकर्म सूक्ष्मत्व गुणको घातता है। आयुकर्म अवगाहन गुणको घातता है। गोत्रकर्म अगुरु-लघुत्व गुणको घातता है। वेदनीय अव्याबाध गुणको घातता है।' . इससे 'संसारी जीवकी मुक्ति नहीं है', ऐसा माननेवाला याज्ञिकमत तथा 'सदा कर्ममलसे अछूता होनेसे सदा मुक्त ही ईश्वर है', यह सदाशिववादियोंका मत अपास्त किया। वे सिद्ध शीतीभूत हैं अर्थात् जन्ममरणरूप सहज दुःख, रोगादिरूप शारीरिक दुःख, सर्प आदिसे होनेवाला आगन्तुक दुःख, आकुलतारूप मानसिक दुःख इत्यादि अनेक सांसारिक दुःखोंकी वेदनाके सन्तापका सम्पूर्ण रूपसे विनाश होनेसे सुखस्वरूप हैं। इससे ३५ १. म यिदरि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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