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________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सीसि संपत्तो निरुद्धणिस्सेसआसओ जीवो । कम्मरयविमुको गयजोगो केवली होदि || ६५ || शैलेस संप्राप्तो निरुद्धनिःशेषास्त्रवो जोवः । कर्मरजो विप्रमुक्तो गतयोगः केवली भवति ।। अष्टादशसहस्त्रशीलाधिपत्यमं प्राप्तनुं निरुद्ध निःशेषास्त्रवनुमप्पुर्दारदं नूतनबद्ध्यमानकरजोविप्रमुक्तनुं मनोवाक्काययोगरहितनप्पुदरिदं अयोगनुमेदितु । न विद्यते योगो यस्यासौ ५ अयोगः स चासौ केवली चायोगकेवली एंदितु भगवदर्हत्परमेष्ठिजीवं पेळळपट्टे ॥ Maan पनि गुणस्थानं गळोळ स्वायुर्वेज्जत कम्मंगळगे गुणश्रेणिनिर्जरातत्कालविशेष निर्देशार्थं गाथाद्वयावतारं । - सम्पत्ती सावयविरदे अनंतकम्मंसे । १२९ १० दस मोहक्खवगे कसायउवसामगे य उवसंते || ६६ || सम्यक्त्वोत्पत्तौ श्रावक विरतयोरनंतकम् शे । दर्शनमोहक्षपके कषायोपशमके चोपशान्ते ॥ खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा । व्विवरीया काला संखेज्जगुणक्कमा होंति ॥ ६७॥ क्षपके च क्षीणमोहे जिनयोद्रव्याण्यसंख्यातगुणितक्रमाणि । तद्विपरीताः कालाः संख्येयगुणक्रमा भवन्ति ॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तियोळकरणत्रयपरिणामचरमसमयदोळ्वर्त्तमान- १५ विशुद्धिविशिष्ट मिथ्या दृष्टिगायुर्वज्जितज्ञानावरणादिकम् मंगलगावुदोवु गुणश्रेणिनिज्जं राद्रव्यवेदं अष्टादश सहस्रशीलाधिपत्यं संप्राप्तः, निरुद्ध निश्शेषासवत्वात् नूतनबध्यमानकर्म रजोविप्रमुक्तः, मनोवाक्काययोगरहितत्वादयोगः, न विद्यते योगो यस्यासो अयोगः स चासौ केवली च अयोगकेवली इति भगवत्परमेष्ठिजीवः कथितः ॥ ६५ ॥ एवंविधचतुर्दशगुणस्थानेषु स्वायुर्वजितकर्मणां गुणश्रेणिनिर्जरा तत्कालविशेषं च गाथाद्वयेनाह--- प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ती करणत्रयपरिणामचरमसमये वर्तमानविशुद्धिविशिष्टमिथ्यादृष्टेः आयुर्वजितज्ञानावरणादिकर्मणां यद्गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यं ततः असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानगुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । जो अठारह हजार शीलोंके स्वामीपनेको प्राप्त हैं, समस्त आस्रवोंके रुक जानेसे जो नवीन बध्यमान कर्मरजसे सर्वथा रहित हैं, तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोगसे रहित होने से अयोग हैं। इस तरह जिनके योग नहीं है तथा केवली भी हैं, वे अयोगकेवली भगवान् परमेष्ठी हैं ॥६५॥ इस प्रकारके चौदह गुणस्थानों में अपनी आयुके सिवाय शेष कर्मोंकी गुणश्रेणिनिर्जरा और उसका कालविशेष दो गाथाओंसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only २० ३० प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय होनेवाले तीन करणरूप परिणामोंके अन्तिम समय में वर्तमान विशुद्धि से विशिष्ट मिध्यादृष्टिके, आयुको छोड़कर ज्ञानावरण आदि कर्मोंका जो गुणश्रेणिरूप निर्जराका द्रव्य असंख्यात गुणा है, उससे असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की गुणश्रेणिरूप निर्जराका द्रव्य असंख्यात गुणा है । उससे देशसंयतका गुणश्रेणिरूप निर्जराका द्रव्य असंख्यात गुणा है । उससे सकल संयमीके गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य असंख्यात गुणा है । उससे अनन्तानुबन्धीकषायके विसंयोजकका गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य असंख्यात गुणा है । १. दंड | १७ २५ ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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