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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १२७ अनंतरं क्षीणकषायगुणस्थान निर्देशार्थमिदं पेळ्दपरु णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । खीणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयरायहिं ॥६२॥ निःशेषक्षीणमोहः स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तः। क्षीणकषायो भण्यते निग्रंथो वीतरागैः॥ निःशेषक्षीणाः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशसत्त्वरहिता मोहप्रकृतयो यस्यासौ क्षीणकषायः एंबी निरुक्त्याश्रयदिदं निरवशेषमोहप्रकृतिसत्वरहितनप्प क्षीणकषाय नदुकारणदिदं स्फटिकभाजनोदकसदृशमप्प प्रसन्नचित्तनुं क्षीणकषायनेंदितु वीतरागसव्वरिंदं फेळल्पट्टनातने परमादिदं निग्रंथनक्कु। उपशांतकषाय, यथाख्यातचारित्रसाधारयविंद निग्ग्रंथनेंदितु प्रवचनदोळ प्रथितनादं॥ अनंतरं सयोगकेवलिगुणस्थानकथननिमित्तमो सूत्रमं पेळ्दपरु द्वितयमं १० असो उपशान्तकषायः इति निरुक्तया अत्यन्तप्रसन्नचित्तता सूविता ॥६१॥ अथ क्षोणकषायगुणस्थानस्वरूपमाह निश्शेषक्षीणा:-प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरहिता मोहप्रकृतयो यस्यासौ निःशेषक्षीणमोहः (कषायः ) इति निरवशेषमोहप्रकृतिसत्त्वरहितः क्षीणकषायः । ततः कारणात् स्फटिकभाजनोदकसदृशप्रसन्नचित्तः क्षीण- १५ कषाय इति वीतरागसर्वज्ञ ण्यते स एव परमार्थेन निम्रन्थो भवति । उपशान्तकषायोऽपि यथाख्यातचारित्रसाधारण्येन निर्ग्रन्थ इति प्रवचने प्रतिपाद्यते (प्रतिपादितो. जातः) ॥६२॥ अथ सयोगकेवलिगुणस्थानं गाथाद्वयेन कथयति उदयके अयोग्य कर दिया है ,वह उपशान्त कषाय है। इस निरुक्तिसे उसका अत्यन्त प्रसन्न चित्तपना सूचित किया है ॥६१।। आगे क्षीणकषाय गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं जिसकी मोहनीय कर्मकी प्रकृतियाँ निश्शेष क्षीण अर्थात् प्रकृति , स्थिति,अनुभाग और प्रदेशसे रहित हो गयी हैं वह निःशेष क्षीणमोह अर्थात् समस्त मोहनीय कर्मप्रकृतियोंसे रहित जीव क्षीणकषाय है। इसी कारणसे क्षीणकषाय स्फटिकके पात्रमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान प्रसन्नचित्त होता है, ऐसा वीतराग सर्वज्ञ कहते हैं। वही परमार्थसे निर्ग्रन्थ होता २५ है। उपशान्तकषाय भी यथाख्यात चारित्रके होनेसे निर्ग्रन्थ है,ऐसा आगममें कहा है। विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायक्षपकके अन्तिम समयमें चारित्रमोहकी प्रकृति स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ताके व्युच्छिन्न होनेपर उसके अनन्तर समय में चारित्र मोहका भी पूर्ण रूपसे विनाश होनेपर जीव क्षीणकषायी होता है। उसका चित्त अर्थात् भावमन विशुद्ध परिणाम अति निर्मल स्फटिक पात्र में भरे निर्मल जलके समान ३० होता है । अर्थात् जैसे वह जल कलुषित नहीं होता,उसी प्रकार यथाख्यात चारित्रसे पवित्र क्षीणकषायका विशुद्ध परिणाम भी किसी भी कारणसे कलुषित नहीं होता। वही परमार्थसे निर्ग्रन्थ है क्योंकि उसके कोई भी अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह नहीं होती ॥२॥ आगे सयोग केवलि गुणस्थानको दो गाथाओंसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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