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________________ ११२ गो० जीवकाण्डे अंतोमुहुत्तकालं गमिऊण अधापवत्तकरणं । पडिसमयं सुझंतो अपुव्वकरणं समल्लियइ ॥५०॥ अंतर्महूर्त्तकालं गमयित्वाऽधः प्रवृत्तकरणं तं प्रतिसमयं शुद्धयन्नपूर्वकरणं समाश्रयति । इंतंतर्मुहूत्र्तकालायाममप्प पेरगे पेळ्द लक्षणप्पधःप्रवृत्तकरणमं कळिपि विशुद्धसंयतनागि ५ प्रतिसमयनंतगुणविशुद्धिवृभियदं वर्द्धमाननेप्पऽपूर्वकरणं गुणस्थानमनदं समायिसुगुं ॥ एदम्पि गुणट्ठाणे विसरिससमयट्ठियेहि जीवेहि । पुव्वमपत्ता जम्हा होति यपुव्वा हु परिणामा ॥५१।। एतस्मिन् गुणस्थाने विसदृशसमयस्थितै|वैः पूर्वमप्राप्ताः यस्माद्भवंत्यपूर्वाः खलु परि___णामाः॥ई यपूर्वकरणगुणस्थानदोळ विसदृशंगळप्पुत्तरोत्तरसयंगळोळं स्थितजीवंगाळदं पूर्व-पूर्व १० समयंगळोळ पोहद विशुद्धिपरिणामंगळे समाश्रयिसल्पडुवुवावुदो दु कारणादिमपूर्वाः करणाः परिणामा यस्मिस्तदपूर्वकरणं गुणस्थान दितु निरुक्तियिदं लक्षणं पेळल्पटुदु ॥ भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होदि सव्वदा सरिसो । करणेहि एक्कसमयट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य ॥५२॥ भिन्नसमयस्थिते वैर्न भवति सव्वंदा सदृशः। करणैरेकसमयस्थितैस्सदृशो विसदृशश्च ॥ एवमन्तर्मुहर्तकालायामं प्रागुक्तलक्षणमधःप्रवृत्त करणे गमयित्वा विशुद्धसंयतो भूत्वा प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धया वर्धमानः अपूर्वकरणगुणस्थानं समाश्रयति ॥५०॥ यस्मात् कारणात् एतस्मिन् अपूर्वकरणगुणस्थाने विसदृशेषु उत्तरोत्तरेषु समयेषु स्थित वैः पूर्वपूर्वसमयेष्वप्राप्ता एव विशुद्धिपरिणामाः प्राप्यन्ते,तस्मात् कारणात् अपूर्वाः करणाः परिणामा यस्मिन् तदपूर्वकरणगुणस्थानमिति निरुक्त्या लक्षणमुक्तम् ॥५१॥ यथाधःप्रवृत्त करणे भिन्नसमयस्थितानां जीवानां परिणामसंख्याविशुद्धिसादृश्यं संभवति तथाऽस्मिन्न इस प्रकार अप्रमत्त गुणस्थानको कहकर अपूर्वकरण परिणाम पूर्वक अपूर्वकरण गुणस्थानको कहते हैं-इस प्रकार अन्तमुहूत काल प्रमाण पूर्वोक्त लक्षणवाले अधःप्रवृत्तकरणको करके विशुद्ध संयमी होकर प्रतिसमय अनन्त गुणी विशुद्धिसे वर्धमान होता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है ॥५०॥ 'जिस कारणसे इस अपूर्वकरण गुणस्थानमें विसदृश अर्थात् असमान उत्तरोत्तर समयोंमें स्थित जीवोंके द्वारा जो पूर्व-पूर्व समयोंमें नहीं प्राप्त हुए ,ऐसे विशुद्ध परिणाम प्राप्त किये जाते हैं। इस कारणसे जिसमें अपूर्व करण अर्थात् परिणाम हो,वह अपूर्वकरण गुणस्थान है। यह निरुक्ति द्वारा अपूर्वकरणका लक्षण कहा है ॥५१॥ जैसे अधःप्रवृत्तकरणमें भिन्न-भिन्न समयोंमें स्थित जीवोंके परिणामोंकी संख्या और १. विशुद्धिमें समानता पाई जाती है , उस प्रकार इस अपूर्वकरण गुणस्थानमें सर्वदा किसी भी जीवके समानता नहीं पाई जाती। तथा एक समयमें स्थित करण अर्थात् परिणामोंके मध्य में विवक्षित एक परिणामकी अपेक्षासे समानता और नाना परिणामोंकी अपेक्षा असमानता जीवोंके अधःप्रवृत्तकरणकी तरह यहाँ भी होती है । सो नियम नहीं है ऐसा जानना ॥५२॥ १. मननपू। २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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